SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि हम परमात्मा की आराधना इसलिए करते हैं कि-हम सतत राग और द्वेष से भरे हुए हैं। हमने कभी उनके जैसा वीतरागत्व का अनुभव नही किया। वीतराग अच्छे लगते हैं लेकिन वीतरागपना किसी को नही भाता है। परमात्मा ने कहा-राग और द्वेष को छोड़े बिना किसी का मोक्ष नही होगा। इस वीतराग धर्म की अंतिम शर्त है-राग और द्वेष का त्याग करो। ___ एक आश्चर्य हमें यह भी हो सकता है कि आचार्यश्री को बेडी के बधन क्यो आये? कितने पुण्यवान होते हैं सत, कौन उनको बेडी मे बाँध सकता है ? आचाराग सूत्र में कहा है-“एस वीरे पससिए जे बद्धे पडिमोयए" अर्थात्-वही वीर प्रशंसित होता है जो बद्ध को मुक्त करता है। हर समय वह यही सोचता है कि मै किस मार्ग पर चल कर बधनों से मुक्त हो जाऊँ और अन्यो को बन्धनो से मुक्त करूँ। जिसने सर्वथा सतत बधनो से मुक्त होने के लिये प्रयास किये उनको क्यो बेड़ी के बधनो मे बाधे गये? इस विशेष आश्चर्यजनक घटना का प्रभाव शक्रेन्द्र पर पडता है और शक्रेन्द्र का आसन चलायमान होता है। वे आचार्यश्री के पास आते हैं। नमस्कार की मुद्रा मे उनके पैर पकड़ लेते हैं। स्पर्श का अनुभव कर आचार्यश्री ने कहा-“कौन हो तुम?" उन्हे ने कहा-"मैं परमात्मा महावीर का भक्त हूँ। उनके शासन का प्रेमी हूँ, उनके । सतो का दास शक्रेन्द्र हूँ।" "तुम किसलिए यहाँ आये हो? "मै जैन शासन का चमत्कार बताने के लिये, आपकी बेड़ी के बधन तोड़ने के लिये और आपके अरमानो को पूर्ण करने के लिये।" ___ "क्या तुम मेरे अरमानो को पूर्ण करोगे और शासन का चमत्कार बताओगे? शासन तो अपने आप मे स्वय चमत्कारिक है और हर समय रहेगा, उसका चमत्कार बताने वाले तुम कौन हो, शासन स्वय परमात्मा देवाधिदेव से प्रभावित है।" "भन्ते। मैं तुम्हारी बेडी के बधन तोडना चाहता हूँ।" "लेकिन बेड़ी के बधन क्यो आये शक्रेन्द्र ? इसके कारण को देखो ना कोई किसी को बेडी के बधन में नही बाध सकता। कहा भी तो है "शु करवाथी पोते सुखी, शु करवाथी पोते दुःखी। पोते शु क्याथी छे आप, तेनो मागो शीघ्र जवाब ॥" हम सुखी और दुखी क्यो होते हैं, इसका उत्तर किसी से मत मागो, अपने आप मे ढूँढ़ लो। यदि तुम यह समझते हो मुझे कोई दुःख दे रहा है लेकिन किसी की ताकत नही कि
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy