SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुक्ति- वोध ३७ पा आगे| आर यदि उनका स्मरण करके प्रसन्नता नही मिलती है तो समझ लेना कि हमारी भक्ति में कहीं न कही कमी है। "चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यु पूजा अखंडित एह रे" उक्त स्तवन का एक ही फलितार्थ है कि व्यक्ति मे कहीं न कही चित्त की प्रसन्नता प्रस्फुटित होनी चाहिये। परमात्मा प्रसन्नता के धाम हैं और हम उनसे प्रसन्न होना चाहते हैं । प्रसन्न का स्मरण फरंग तो हमे प्रसनता मिलेगी। दुखी का साथ करेंगे तो दु ख मिलेगे। प्रसन्नधामका साथ करेंगे तो प्रसनता अपने आप मे प्रस्फुटित हो जायेगी। यह बात निश्चित है कि परमात्मा की प्रसन्नता हमका नही मिलती है। हम मे ही प्रसन्नता है। यह प्रसन्नता प्रसन्न-धाम के पास पहुंच करके सम्पूर्ण अनावृत हो सकती है। जग कहते हैं-"माम् त्वद्भक्तिरेव बलात् मुखरीकुरुते " मुझे तुम्हारी भक्ति ही "बलात्" याने जवरदस्ती " मुखरीकुरुते" याने वोलने के लिये विवश कर रही है। "माम्" याने मुझ । “माम्” कहने वाले सिर्फ मानतुगाचार्य नहीं, सिर्फ दिव्यप्रभा नही, नाम करने वाले आप सब हो सकते हो। याद रखिए, इसके शब्दो के निर्मित अर्थ मे वध नाजोगे तो भक्तामर आपको आज नही, कभी भी नही मिल सकेगा। लेकिन भावो से एकरूपता स्थापित करोगे तो भक्तामर आप मे आज भी जीवत हो उठेगा। आचार्यश्री ने 'मामू" शब्द को रखकर सब भक्तजनो को अपने साथ कर लिया है। उन्होने यह समझाया कि "माम्" याने मुझे। "मुझे " से मतलब जो भी "भक्तामर " का स्तवन करेगा उनको "त्वद् भक्तिरेव" तुम्हारी ही भक्ति, और किसी की नही । "बलात् मुखरीकुस्ते" जबरदस्ती वाचाल करती है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy