SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि "मुखरीकुरुते " चाहता तो हॅू मौन रहकर तेरी आराधना करूँ परन्तु बलात् मेरी वाचा प्रकट हो रही है। परमात्मन् ' मै न तो बोलता हूँ, न गाता हॅू लेकिन मेरे से जवरदस्ती बोला जा रहा है। ३८ पूर्व में हमने देखा था - भक्त विवश हो रहा था लेकिन विवशता की एक सीमा होती है । विवशता मिट जाती है लेकिन बलात् असीम होता है। इस प्रकार "बलात् " शब्द भक्ति को एक चरम सीमा तक ले जाता है । १ " बलात् " शब्द का प्रयोग कर आचार्य श्री यह कहना चाहते हैं कि ऐसे तो मौन रहकर ही तुम्हें मना सकता हूँ परन्तु तुम्हारे प्रति रही हुई भक्ति बलात् ही मुझे मुखरित कर रही है। २ तू वीतराग है, अनुपम है, तू तुझ मे ही लीन है, तू चाहने न चाहने के सारे द्वन्द्वो से भी मुक्त है, फिर भी मैं बलात् ही तुझे अपने हृदय मे बाध रहा हूँ। o आचार्य श्री एक बहुत सुन्दर दृष्टात बताते हैंयत्कोकिल किल मधी मधुरं विरौति । तच्चारुचूतकलिका - निकरैकहेतु ॥ जैसे आम्रवृक्ष के ऊपर जब मजरी आती है तब मजरी के उस समूह को देखकर कोकिल पक्षी कूजना शुरू कर देता है और वह समय मधौ याने वसन्त ऋतु का होता है। कोकिल को कौन कहने जाता है कि अब वसन्त ऋतु आ गई है, लेकिन आम्र-मजरी को देखकर कोकिल समझता है कि वसन्त ऋतु आ गई है। ओ आनन्द के धाम' आपकी पूर्ण वीतरागता से मै अपनी निज स्वाभाविकता को अभिप्रेरित कर रहा हूँ। सर्वतः प्रसन्न तेरी शान्तमुद्रा को हृदय में स्थापित कर चित्त को प्रसन्न कर रहा हूँ । ससार के इस सम्यक्त्व उपवन मे मेरे जीवन की धर्म वसन्त पुरबहार खिल रही है, मै कितना भाग्यशाली हूँ। तुम तो पचम काल में मेरे सामने साक्षात् हो रहे हो और भक्तिबल से मैं प्रत्यक्ष स्तुति कर रहा हूँ। पचम काल मे ऐसी परमार्थ भक्ति एव आत्मानुभव धर्म का यह कैसा मधुर मौसम है । आपके सद्गुणो की, वीतरागभावो की, आत्मिक प्रसन्नता की मजरियाँ देखकर मेरा आत्म-कोकिल कूक उठता है, कुहुकता है । मेरी कूफ है मुक्ति की । परमात्मन् । इस कूक मे कूक मिल जाये, मिलन का बघन हो जाय और बधन की मुक्ति हो जाय । अब मैं तेरे बधन में बँध गया। अपने कर्मों की, अपने पापो की, अपनी जन्म-परम्पराओं की मुक्ति का अभिप्रयोग मागता हूँ। ऐसे परार्थ भाव मे लीन आचार्यश्री के भीतर से वाणी प्रस्फुटित होती है। त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्ध, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy