SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि मे सोचती हूँ अल्पज्ञानी और अज्ञानियो से तो पूरा ससार भरा है। क्या परम श्रुतधर इन सवकी मजाक कर सकते हैं ? और यदि ऐसा सही है तो फिर करुणा कौन करेगा? कोशकारो के अनुसार "हास" शब्द के दो अर्थ हैं१ हसी - मजाक, २ प्रसन्नता। विशेष मे इस पर "परि" उपसर्ग लगा है। “परि" शब्द उपसर्ग के रूप मे धातु या सज्ञाओ से पूर्व लगकर सर्वत , चारो ओर, इधर-उधर, इर्द-गिर्द, बहुत, अत्यन्त अर्थ मे प्रयुक्त होता है। अव इसके प्रयोग देखे परि + वार-चारो तरफ से जहाँ वार होते हैं, जैसे-सुख-दुःख के, प्यार-तिरस्कार के, अच्छे-बुरे आदि से घिरा हुआ। इसी प्रकारपरिग्रह ___ - चारो तरफ से पकड़ा हुआ, घिरा हुआ परिभ्रमण - अत्यन्त भटकनेवाला परिक्रिया - बाड़ लगाना परिक्रम - प्रदक्षिणा लगाना परिचय - जान - पहचान मजाक के अर्थ मे "हास" शब्द के पूर्व "उप' उपसर्ग प्रसिद्ध था। धीरे-धीरे "परिहास" शब्द भी इसी अर्थ में व्यापक हुआ, वरना दोनो उपसर्ग अपने अलग-अलग रूप मे ही व्यापक हैं और दोनो के अर्थ मे अन्तर भी है। जैसे परिहार-उपहार। यहा परिहार याने छोड़ना-तिलाजलि देना है और उपहार याने आहुति-भेटादि। परिक्रम-उपक्रम। परिक्रम याने चारो ओर घूमना, प्रदक्षिणा करना और उपक्रम आरभ-शुरू करना। इन सबको देखकर यहाँ "हास" शब्द प्रसन्नता वाचक मानकर परि उपसर्ग लगने से "सर्वत प्रसन्नता के पात्र" ऐसा अर्थ अधिक उचित लगता है। और इस प्रकार परमात्मा से अभिप्रेत होकर पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार होता है (आप परम वीतराग हो) अल्पज्ञानी और श्रुतधर (इन सव) के आप सर्वत प्रसन्नता के (अनन्य) पात्र हो, अत है प्रमु सचमुच तुम्हारी भक्ति मुझे हठात् मुखरित करती है। ममा में कही भी जायेगे-कोई किसी न किसी रूप मे दुखी है, कोई किसी न किसी में तकलीफ पा रहा है। पाम स्वरूप ही ऐसा है, जिसके चारों तरफ केवल आनन्द ही आनद है, प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। आप "लोगम्स" में बोलते हो-"तित्थयरा मे पनीयन्तु। नोयंकर मुझ पर प्रसन्न होओ। उनकी प्रसन्नता, उनका आनन्द प्रसाद हम मप्रान ही नीचे देखो,ऊपर देखो, मुख पर देखो, चरण देखो, उनकी वाणी देखो, मायादेवा, उनके दि देवो, जो भी देखोगे, जहाँ मी देखोगे वही प्रसन्नता
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy