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________________ "सव्वाओ दिसाओ सव्याओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसचरइ सोऽहम्।" -आचाराग श्रुतस्कध १, अध्ययन १, उद्देशक १ १ जो सब दिशाओं और सव अनुदिशाओ से आकर अनुसचरण करता है, वह मै २ दूसरी व्याख्या होती है- इस परिभ्रमण या बुद्धिहीन अवस्था को जो मिटाता है, ___ वह भी मैं हूँ। जो परिभ्रमण करता है, जन्म-मृत्यु, सयोग-वियोग, सुख-दुःख की अनुभूति करता है, वह मैं हूँ। प्रगतिमय भी मैं हूँ, पतनमय भी मैं हूँ, जो बधनो मे बधा है वह भी मैं हूँ, जो यधना से सर्वथा मुक्त हो सकता हे वह भी मै हूँ। निश्चय दृष्टि से अभी भी अनत ज्ञान-दर्शन स्वरूप मुक्तात्मा भी मै हूँ। तुरन्त का जन्मा एक सिह शिशु एक बार एक चरवाहे के हाथ चढ़ा। उसने उसे भड़ बकरियों के समूह मे छोड़ दिया। वह सिह का बच्चा बकरियो के साथ बे-बे करना मीरा गया।घास खाने लगा, छोटे-मोटे कुदके मारने लगा, उसे कभी इस बात का पता नही चला कि वह इस रीत-भात के लिए योग्य नही है। __ एक दिन इस समूह के सामने दहाड़ता हुआ सिह आया। सब बकरियाँ भाग गई, लकिन वह सिह शिशु उस वनराज के सामने अनिमेष दृष्टि से देखता रहा। देखते ही उसक मन मे कुछ अगम्य प्रश्न उठने लगे--मै कौन हूँ? मै बकरी नही, मै बे-बे करने वाला हो, घास खाने वाला नहीं, कुदके मारने वाला नहीं। ना ना ना मैं-मैं उसमे से कुछ नहीं हूँ। तो मै कौन हूँ? - मै वही हूँ। वह सिह ही मे हूँ। वही मेरा स्वरूप है। जोर से दहाड़ता हुआ बड़ी छलाग मार कर वह सिह के पास जाकर खड़ा हो गया और कहने लगा "तू ही मै हूँ और अत में ही मैं हूँ। यह धुन उसे लग गई। सच्चिदानद स्वरूप आत्मा। अनतज्ञानी। अनतदर्शी। अनत चारित्री । महासतिमा। सचमुच सिह। बकरियों के समूह में फस गया। क्षुद्र याचनाओं में दीन हो ६५ करता है, विषय-कपाय की घास खाता है, जीवन के क्षणिक सुखों के लिए कुदके नाही परमात्मा का झलकता हुआ प्रतिविम्ब उसे यह समझाता है कि इस प्रवृत्ति के तू योग्य तथापि तव भक्तिवशात्" तयापि याने फिर भी।जैसा हूँ वैसा फिर भी “तव" तेरा 'ने प्रयुक्त विविध शब्दो के सयोग से "तव" शब्द के यहॉ तीन महत्वपूर्ण
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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