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________________ मुनीश । ___३0 भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्, नाभ्येति किं निजशिशो परिपालनार्थम् ॥५॥ = हे मुनीश्वर । (साधुओ के स्वामी) = वह अहम् = मै तथापि = फिर भी भक्तिवशान् = भक्ति के कारण विगतशक्ति = शक्ति रहित अपि = (होते हुए) भी तव स्तव कर्तुम् = तुम्हारी स्तुति करने के लिए प्रवृत्त = तत्पर हूँ, मृगी = हरिणी प्रीत्या = प्रीति से आत्मवीर्यम् = अपने सामर्थ्य को अविचार्य = बिना विचारे निजशिशो ___= अपने बच्चे की परिपालनार्थम् = रक्षा करने के लिए किम् = क्या? मृगेन्द्र न अभ्येति = सिह का सामना नही करती? (अर्थात् अवश्य करती है) परमार्थ -हे मुनीश। ईश याने स्वामी। हे मुनियो के स्वामी। नाथ। केवल मेरे (मानतुग के) ही नही परन्तु सभी मुनियो के स्वामी । जिन्होने भी बाह्य-आभ्यतर दोनो ग्रन्थियो को और सासारिकता को छोड़ दिया, उन सर्व के स्वामी। एक मानतुग जैसे हजारो हजार मानतुग तेरे शासन पर न्यौछावर हो गये। हजारो साधु-साध्वियो का तू ही एक नाथ। तेरे विना सभी अनाथ हाय, जिनके पास तू नही, तेरी आज्ञा नही, तेरी शीतल छाया नहीं वह सत होकर भी भिखारी है। मेरे स्वामी! शासन का कोई सत तेरी शीतल छाया से दूर न रहे। । सो अहम् वह मै। कितना गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है इस "सो अहम्" मे । तीसरे श्लोक मे स्वय का परिचय देने वाला कह रहा है कि विना बुद्धि का, विना शर्म का, विना विचार का और विना शक्ति का “वह मै"। "आचाराग सूत्र" मे निहित “सो अहम्' शब्द भी व्यापक अर्थ मे प्रज्ञापित है
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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