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________________ प्रतीक १३३ ज्वलितम् - जलती हुई उज्ज्वलम् - रक्तवर्णी/लालिमा युक्त उत्स्फुलिङ्गम् - चारों ओर ऊपर को उठती हुई चिनगारियों वाली अशेषम् विश्वम् - सारे ससार को जिघत्सुम् इव - नाश करने/खा जाने की इच्छुक ऐसी सम्मुखम् - सामने-समक्ष में आपतन्तम् आती हुई दावानलम् दावाग्नि को-जगली आग को त्वन्नामकीर्तनजलम् - आपके नाम का कीर्तन (स्मरण) रूपी जल (अशेषम्) (सम्पूर्ण रूप से) शमयति - शान्त कर देता है-बुझा देता है। दावानल के अति बीभत्स रूप को प्रतीक बनाकर यहाँ माया को चित्रित किया गया है। समस्त ससार को अपनी लपेट मे लेकर यह सर्वनाश की घोतक है। माया समस्त कषायो मे साथ रहती है। आत्मा के सहज स्वाभाविक रूप को यह आवृत करती है। ___ यह दावाग्नि दर्शनावरणीय कर्म का भी प्रतीक है। जैसे दर्शनावरणीय कर्म यथास्थिति को समझने नहीं देता है वैसे ही दावाग्नि अपनी प्रचडता में फैलकर, व्यापकता मे उद्धत होकर वास्तविकता से वंचित कर देती है। इसकी विकरालता, घातिकर्म की उन्मत्तता से एकरूपता दिखाती है। फिर भी परमात्मा के स्मरण रूप जल से यह दावाग्नि रूप माया निष्फल हो जाती है। शान्त हो जाती है। आगे कहते हैं रक्तेक्षण समद-कोकिल-कण्ठनील, क्रोधोद्धत फणिनमुत्फणमापतन्तम्। आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्कस्त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुस.॥४१॥ - जिस (के) - मनुष्य के - हृदय में LE
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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