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________________ १३२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि क्रमयुगाचलसश्रितम् - दोनो चरणरूपी पर्वत के आश्रित (भक्त) पर न आक्रामति - आक्रमण नही करता। मोह कर्मराज है। सर्व कर्मों का नेतृत्व उसके हाथो मे है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय ज्ञान-दर्शन पर आवरण का काम करते हैं। अतराय कर्म का कार्य आवरण करना नहीं है। यह आत्मा के गुणो का आवरण नही करता पर यह आत्मा के वीर्य-बल को रोकता है। ये तीन आत्मघाती प्रकृतिया हैं। मोहनीय भी घाती प्रकृति है। यह न तो आवरण लाती है, न कुछ रोकती है। इसका कार्य है विह्वल करना, व्याकुल करना, मूर्छित करना। हे परमात्मा । बद्धक्रम याने छलाग मारने के लिये उद्यत ऐसा मोह का प्रतीक रूप सिह जो काम और मान के प्रतीक सम हाथी पर अपना नेतृत्व करता है। ऐसा यह मोह रूप सिह भी आपके आश्रित भक्त पर आक्रमण नही करता है। जैसे सिह छलाग मारता है वैसे ही आपके अनाश्रित ऐसे मुझ पर यह मोह-कर्म शांति मे छलांग मारकर मुझे हतप्रभ करता रहा है। निश्चय दृष्टि से आपके प्रति रहा हुआ राग भी वीतराग भाव मे त्यजनीय है, फिर भी हे परमात्मा । तेरे प्रति रहा हुआ प्रशस्त राग मेरे लिए परम साधन है। राग केशरी सिह है। वनराज सिह सदा भय का प्रतीक रहा, परन्तु वही सिह जब सर्कस का सिह बना लिया जाता है। तब वह रिग मास्टर के इशारे पर कार्यक्षम रहकर अत्यधिक कमाई भी करा देता है। नाश करने वाला सिह कार्य कुशलता से अर्थ सहयोग का साधन बन जाता है। वैसे ही हे प्रभु । राग भी सिह है। वह ससार मे तो भयानक है पर अध्यात्म क्षेत्र मे वही सिद्धि सहयोग का परम कारण बन जाता है। ___ इसी प्रकार कषायो मे क्रोध को सिह की उपमा दी गई है। सिह की गणना सौम्य प्राणियो मे नही है। वह क्रूर और घातकी प्राणी माना जाता है। क्रोध के उदयभाव मे व्यक्ति की आकृति भी प्रकृति के अनुसार उत्तेजित, उग्र और क्रूर-सी हो जाती है। ___मैं अनादिकाल से कर्म मोहनीय से आबद्ध हैं। प्रभु । आज तेरे चरणो का आश्रय ग्रहण करने से अब वह मुझ पर आक्रमण नही कर सकता। ऐसा सोचते हुए आचार्यश्री को ससार की भयानक माया को पराजित करने की इच्छा होती है, वे कहते हैं कल्पान्तकाल-पवनोद्धत-वन्हि-कल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥४०॥ कल्पान्तकालपवनोद्धतवन्हिकल्पम् - प्रलयकाल की महावायु के तेज थपेड़ों से उत्तेजित हुई आग के समान
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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