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________________ ५१४ वर्द्धमान ( ८४ ) तथा तथा आगत व्योम-चक्र से मनोज्ञ सगीत अश्रूय'माण हो, विलीन होता नभ मे नितान्त ही मुना गया था, न सुना गया तथा । ( ८५ ) तथा-तथा ही नभ की गंभीरता अनन्त थी, सो फिर सान्त हो गयी; उमी शिला के तट यान आ रुका जिनेन्द्र-आत्मा फिर देहिनी बनी। ( ८६ ) तथैव स्वर्गीय-प्रकाश-मार्ग से चला पुन , न्यदन लुप्त हो गया। जिनेन्द्र ने लोचन खोल जो लखा हुई प्रतीता ऋजुवालिका-तटी। ( ८७ ) महायती के हृदयानुविम्ब से, प्रसन्नता से पृथवी प्रपूर्ण थी, प्रसक्त था आनन मुग्ध भाव में कि मूक प्राणी गुड खा गया कही। 'न सुनी गयी। शरीरिणी।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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