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________________ ४४ -~* सम्यग्दर्शन शुभभावका ही अस्तित्व होता है । ऐसा ज्ञान मात्र करानेके लिये शास्त्र में शुभभावको शुद्ध भावका कारण उपचारसे ही कहा है। किन्तु यदि शुभभाव को शुभभावका कारण वास्तवमें माना जाय तो उस जीवको शुभभावकी रुचि है इसलिये उसका वह शुभभाव पापका ही मूल कहलायेगा ! जो जीव शुभभावसे धर्म मानकर शुभभाव करता है उस जीवको उस शुभभावके समय ही मिथ्यात्वके सबसे बड़े महापापका बन्ध होता है अर्थात् उसे मुख्यतया तो अशुभका ही बन्ध होता है और ज्ञानी जीव यह जानता है कि इस शुभका अभाव करनेसे ही शुद्धता होती है इसलिये उनके कदापि शुभकी रुचि नहीं होती अर्थात् वे अल्प कालमें शुभका भी अभाव करके शुद्ध भावरूप हो जाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव पुण्यकी रुचि सहित शुभ भाव करके नवमें प्रैवेयक तक गया तथापि वहाँसे निकलकर निगोदादिमें गया क्योंकि अज्ञान सहितका शुभ भाव ही पापका मूल है। शुभभाव मोहरूपी राजा की कढी है। जो उस शुभरागकी रुचि करता है वही मोहरूपी राजा के जालमें फंसकर संसारमें परिभ्रमण करता रहता है। जीव मुख्यतया अशुभमें तो धर्म मानता ही नहीं, परन्तु वह जीव शुभमें धर्म मानकर अज्ञानी होता है जो स्वयं अधर्मरूप है ऐसा रागभाव धर्मके लिये क्योंकर सहायक हो सकता है ? धर्मका कारण धर्मरूप भाव होता है या अधर्मरूप भाव होता है ? अधर्मरूप भावका नाश होना ही धर्मका कारण है अर्थात् सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र द्वारा अशुभ तथा शुभभावका नाश होना ही धर्मभाव का कारण है। शुभ भाव धर्मकी सीढ़ी नहीं है, किन्तु सम्यक् समझ ही धर्मकी सीढ़ी है केवलज्ञान दशा संपूर्ण धर्म है और सम्यक् समझ अशतः धर्म
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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