SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्र माला ४३ (११) कल्याणमूर्ति हे भव्य जीवो ! यदि तुम आत्मकल्याण करना चाहते हो तो स्वतः शुद्ध और सर्वप्रकार परिपूर्ण आत्मस्वभावकी रुचि और विश्वास करो, तथा उसीका लक्ष्य और आश्रय ग्रहण करो । इसके अतिरिक्त अन्य समस्त रुचि, लक्ष्य और आश्रयका त्याग करो । स्वाधीन स्वभावमें ही सुख है, परद्रव्य तुम्हें सुख या दुःख देनेके लिये समर्थ नहीं है । तुम अपने स्वाधीन स्वभाव का आश्रय छोड़कर अपने ही दोषोंसे पराश्रयके द्वारा अनादिकाल से अपना अपार अकल्याण कर रहे हो ! इसलिये अब सर्व परद्रव्यों का लक्ष्य और आश्रय छोड़कर स्वद्रव्यका ज्ञान, श्रद्धान तथा स्थिरता करो । स्वद्रव्यके दो पहलू हैं- एक, त्रिकाल शुद्ध स्वतःपरिपूर्ण निरपेक्षस्त्रभाव और दूसरा क्षणिक वर्तमान में होनेवाली विकारी अवस्था । पर्याय स्वयं अस्थिर है, इसलिये उसके लक्ष्यसे पूर्णताकी प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट नही होता, किन्तु जो त्रिकालस्वभाव है वह सदा शुद्ध है, परिपूर्ण है, और वर्तमान में भी वह प्रकाशमान है, इसलिये उसके आश्रय तथा लक्ष्यसे पूर्णता की प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट होगा । यह सम्यग्दर्शन स्वयं कल्याणरूप है और यही सर्व कल्याणका मूल है। ज्ञानीजन सम्यग्दर्शन को 'कल्याणमूर्ति' कहते है । इसलिये सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करनेका अभ्यास करो । (१२) धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है । अज्ञानियों की यह मिथ्या मान्यता है कि शुभभाव धर्मका कारण है । शुभभाव तो विकार है वह धर्मका कारण नहीं है, सम्यग्दर्शन स्वयं धर्म है और वह धर्मका मूल कारण है । अज्ञानीका शुभ भाव अशुभकी सीढ़ी है और ज्ञानीके शुभका अभाव शुद्धता की सीढ़ी है। अशुभसे सीधा शुद्ध भाव किसी भी जीवके नहीं हो सकता, किन्तु अशुभ को छोड़कर पहले शुभभाव होता है और उस शुभको छोड़कर शुद्धमें जाया जाता है, इसलिये शुद्धभावते पूर्व
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy