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________________ * सम्यग्दर्शन दुःख बना रहता है, किन्तु तेरी उस चितासे परका कोई कार्य नहीं बनता और तेरा अपना कार्य बिगड़ता जाता है। इसलिये हे भाई! अनादि कालसे आज तककी तेरी पर संवन्धी तमाम चिंतायें असत्य सिद्ध हुई और वे सब निष्फल गई, इसलिये अव प्रज्ञाके द्वारा अपने भिन्न स्वरूपको जानकर उसमे एकाग्र हो। परकी चिंता करना तेरा स्वरूप नही। तू परकी वस्तुओंको एकत्रित मानकर उनकी चिंता किया करे तो भी पर वस्तुओंका तो जो परिणमन होता है वही होगा। और यदि तू पर वस्तुओंको भिन्न जानकर उनका लक्ष्य छोड़ दे तो भी वे तो स्वयं परिणमित होती ही रहेंगी। तेरी चिंता हो या न हो उसके साथ पर वस्तुओंके परिणमनका कोई सम्बन्ध नहीं है। अनादि कालसे आत्माने परका कुछ नहीं किया, अपनेको भूलकर मात्र परकी चिंता ही की है। किन्तु हे आत्मन् ! प्रारम्भसे अन्त तककी तेरी समस्त चिंतायें निष्फल गई हैं इसलिये अव तो स्वरूपकी भावना कर और शरीरादिक पर वस्तुकी चिता छोड़कर निजको देख । अपनेको पहिचाननेपर परकी चिंता छूट जायगी और आत्माकी शांतिका अनुभव होगा । तुझे अपने धर्म का सम्बन्ध आत्माके साथ रखना है या परके साथ ? यहाँ यह बताया है कि आत्माके धर्मका सम्बन्ध किसके साथ है। मैं चाहे जहॉ होऊं किन्तु मेरी पर्यायका सम्बन्ध मेरे द्रव्यके साथ है.बाह्य संयोगके साथ नहीं है। चाहे जिस क्षेत्रमें हो किन्तु आत्माका धर्म तो आत्मामें से ही उत्पन्न होता है, शरीरमें से या संयोगमें से धर्मकी उत्पत्ति नहीं होती। जो ऐसी स्वाधीनताकी श्रद्धा और ज्ञान करता है उसे कहाँ आत्माके साथ सम्बन्ध नहीं होता ! और जिसे ऐसी श्रद्धा तथा ज्ञान होता है वह कहाँ शरीरादिका सम्वन्ध मानता है ? स्वभावका सम्वन्ध न टूटे और परका सम्बन्ध कही न माने–बस, यही धर्म है। v एक क्षणभरका भेदज्ञान अनंत भवका नाश करके मुक्ति प्राप्त कराता है। 'दर्शन शुद्धिसे ही आत्म सिद्धि"
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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