SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला ३६ समझ में समय लगा देंगे तो फिर अपनी आजीविका और व्यवसाय कैसे चलेगा ? सन उत्तर- - जिसे आत्माकी रुचि नही है किन्तु संयोगकी रुचि है उसीके यह प्रश्न उठता है । आजीविका इत्यादिका संयोग तो पूर्वकृत पुण्य के कारण मिलता है, उसमें वर्तमान पुरुषार्थ और चतुराई कार्य-कारी नहीं होती । आत्मा को समझने में न तो पूर्व कृत पुण्य काम में आता है और न वर्तमान पुण्य ही किन्तु यह तो पुरुषार्थके द्वारा अपूर्व आंतरिक संशोधनसे प्राप्त होता है वह बाह्य संशोधन से प्राप्त नहीं हो सकता । यदि तु आत्माकी रुचि हो तो तू पहले यह निश्चय कर कि कोई भी प्रवस्तु मेरी नहीं है, परवस्तु मुझे सुख दुःख नही देती, मैं परका कुछ नहीं करता। इसप्रकार सम्पूर्ण परकी दृष्टिको छोड़कर निज को देख । अपनी पर्याय में राग हो तो उस रागके कारण भी परवस्तु नहीं मिलती, इसलिये राग निरर्थक है । ऐसी मान्यताके होने पर रागके प्रतिका पुरुषार्थ पंगु हो जाता है । पुरकी क्रियासे भिन्न जान लिया इसलिये अब अन्तरंग में रागसे भिन्न जानकर उस रागसे पृथक करनेकी क्रिया शेष रही । इस प्रकार एक मात्र ज्ञान क्रिया ही आत्माका कर्तव्य है । आत्मा परकी क्रिया कर ही नहीं सकता । परसे भिन्नत्वकी प्रतीति करने वाला आत्मा ही है । प्रज्ञारूपी छैनीके द्वारा ही आत्मा बन्धसे भिन्न रूप में पहिचाना जाता है और यह प्रज्ञा छैनी ही मोक्षका उपाय है । 'अनादि कालसे जीवने क्या किया है ! और अब उसे करना चाहिये ? अनादि काल से आज तक किसी भी क्षण में किसी जीवने परका कुछ किया हीं नहीं, मात्र निजका लक्ष्य चूककर परकी चिंता ही की है। हे भाई | तू अपने तत्त्वकी भावनको छोड़करं पर तत्त्वकी जितनी चिंता करता है उतना ही उस चिताका बोझ तेरे ऊपर है, उसी चिंताका तु
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy