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________________ १८४ * सम्यग्दर्शन जीवका परिणमन कितना सहज होगा! उसकी आत्मजागृति निरन्तर कैसी प्रवर्तमान होगी ॥ जो अल्पकालमें केवलज्ञान जैसी परम सहनदशाकी प्राप्ति कराता है, ऐसे इस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनकी कल्पनाके द्वारा कल्पित कर लेने में अनन्त केवली भगवन्तोंका और सम्यकदृष्टियोंका कितना घोर अनादर है ? यह तो एक प्रकारसे अपने आत्माकी पवित्र दशाका ही अनादर है ? . सम्यक्त्व दशाकी प्रतीतिमें पूरा आत्मा आ जाता है, उस सम्यक्त्व दशाके होने पर निजको आत्मसाक्षीसे संतोष होता है, निरन्तर आत्मजागृति रहती है, कहीं भी उसकी आत्मपरिणति फँसती नहीं है, उसके भावोंमें कदापि आत्माके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी आत्मसमर्पणता नहीं आ पाती-जहाँ ऐसी दशाकी प्रतीति भी न हो वहाँ सम्यकदर्शन हो ही नहीं सकता। ____ बहुतसे जीव कुधर्ममें ही अटके हुए हैं, परन्तु परम सत्यस्वरूपको सुनते हुए भी विकल्प ज्ञानसे जानत हुए भी, और यही सत्य है ऐसी प्रतीति करके अपना आन्तरिक परिणमन तद्रूप किये विना सम्यक्त्वकी पवित्र आराधनाको अपूर्ण रखकर उसीमें संतोष मान लेने वाले नीव भी हैं, वे तत्वका अपूर्व लाभ नहीं पा सकते। इसलिये अब आत्मकल्याणके हेतु यह निश्चय करना चाहिये किअपनी वर्तमानमें होनेवाली यथार्थ दशा कैसी है, और भ्रमको दूर करके रत्नत्रयकी आराधनामें निरन्तर प्रवृत्ति होना चाहिये । यही परम पावन कार्य है। (३८) धर्मात्मा की स्वरूप-जागृति सम्यकष्टि जीवके सदा स्वरूपजागृति रहती है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् चाहे जिस परिस्थितिमें रहते हुए भी उस जीवको स्वरूपकी अनाकुलताका आंशिक वेदन तो हुआ ही करता है, किसी भी परिस्थितिम पर्याय
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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