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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १८५ की ओरका वेग ऐसा नहीं होता कि जिससे निराकुल स्वभावके वेदनको विलकुल ढककर मात्र आकुलताका चेदन होता रहे । सम्यग्दृष्टिको प्रतिक्षण निराकुल स्वभाव और आकुलताके बीच भेदज्ञान रहता है। और उसके फल स्वरूप वह प्रतिक्षण निराकुल स्वभावका आंशिक वेदन करता है। ऐसा चौथे गुणस्थानमें रहने वाले धर्मात्माका स्वरूप है। बाह्य क्रियाओं परसे स्वरूप-जागृतिका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। शरीरसे शांत बैठा हो तो ही अनाकुलता कहलाती है और जब लड़ रहा हो उस समय अनाकुलता किचित् नहीं हो सकती ऐसा महीं है अज्ञानी जीव बाह्यसे शांत बैठा दिखाई देता है तथापि अंतरंगमें तो वह विकारमें ही लवलीन होनेसे एकांत आकुलता ही भोगता है उसे किचित् स्वरूप-जागृति नही है। और ज्ञानी जीवको युद्धके समय भी अतरंगमें विकारभावके साथ तन्मयता नहीं रहती। इससे उस समय भी उसे आकुलता रहित आंशिक शांतिका वेदन होता हैइतनी स्वरूप-जागृति तो धर्मात्माके रहती ही है। ऐसी स्वरूप-जागृति ही धर्म है दूसरा कोई धर्म नहीं। (३९) हे भव्य ! इतना तो अवश्य करना । __ आचार्यदेव सम्यग्दर्शनके ऊपर मुख्य जोर देकर कहते हैं कि हे भाई ! तुझसे अधिक न हो तो भी थोड़ेमें थोड़ा सम्यग्दर्शन तो अवश्य रखना । यदि तू इससे भ्रष्ट हो गया तो किसी भी प्रकार तेरा कल्याण नहीं होगा। चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनमें अल्प पुरुषार्थ है, इसलिये सम्यग्दर्शन अवश्य करना । सम्यग्दर्शनका ऐसा स्वभाव है कि जो जीव इसे धारण करता है वह जीव क्रमशः शुद्धताकी वृद्धि करके अल्पकालमें ही मुक्तदशा प्राप्त कर लेता है, वह जीवको अधिक समय तक संसारमें नहीं रहने देता । आत्मकल्याणका मूल कारण सम्यग्दर्शन है, सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रकी एकता पूर्ण मोक्षमार्ग है। हे भाई । यदि तुझसे सम्यग्दर्शन पूर्वक रागको छोड़कर चारित्र दशा प्रगट हो सके तो वह अच्छा है, और यही २४
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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