SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८३ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला ही सन्तोष मानले तो ऐसा मानने वाला जीव संपूर्ण आत्मद्रव्यको मात्र ज्ञानके एक विकल्पमें ही बेच देता है। मात्र द्रव्यसे ही सन्तोप नहीं मान लेना चाहिये, क्योंकि द्रव्यगुणसे महत्ता नहीं किन्तु निर्मल पर्यायसे ही सच्ची महत्ता है। द्रव्य गुण तो सिद्धोंके और निगोदिया जीवोंके-दोनोंके हैं। यदि द्रव्य-गुणसे ही महत्ता मानी जाय तो निगोदियापन भी महिमावान क्यों न कहलायेगा ? किन्तु नहीं, नहीं, सच्ची महत्ता तो पर्याय से है। पर्यायकी शुद्धता ही भोगनेमें काम आती है; कही द्रव्य-गुण की शुद्धता भोगनेमें. काम नहीं आती, ( क्योंकि वह तो अप्रगटरूप है-शक्तिरूप है) इसलिये अपनी वर्तमान पर्यायमें संतोप न मानकर पर्यायकी शुद्धताको प्रगट करनेके लिये पवित्र सम्यग्दृष्टि प्राप्त करनेका अभ्यास करना चाहिये। ____अहो ! अभी पर्यायमें बिल्कुल पामरता है, मिथ्यात्वको अनन्तकाल की जूठन समझकर इसी क्षण ओक देने की (वमन) कर डालने की आवश्यक्ता है। जब तक यह पुरानी जूठन पड़ी रहेगी तब तक नया मिष्ट भोजन न तो रुचेगा और न पच सकेगा”—इसप्रकार जीवको जब तक अपनी पर्यायकी पामरता भापित नहीं होती तब तक उसकी दशा सम्यक्त्व के सन्मुख भी नहीं है। - परिणामोंमें अनेक प्रकारका झंझावात आरहा हो, परिणतिका सहजरूपसे आनन्द भाव होनेकी जगह मात्र कृत्रिमता और भय-शंकाके मोंके आते हों, प्रत्येक क्षण-क्षणकी परिणति विकारके भारके नीचे दब रही हो, कदापि शांति-आत्म संतोषका लेश मात्र अन्तरंगमें न पाया जाता हो, तथापि अपनेको सम्यकदृष्टि मान लेना कितना अपार दम्भ है। कितनी अज्ञानता है, और कितनी घोर आत्मवंचना है। केवली प्रभुका आत्म परिणमन सहजरूपसे केवलज्ञानमय परम सुखदशारूपे ही परिमित हो रहा है। सहजरूपसे परिणमित होने वाले केवलज्ञानका मूल कारण सम्यक्त्व ही है, तब फिर उस सम्यक्त्व सहित
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy