SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजा और प्रजा । ११६ अनुकूल न कर सकेगा । अतएव उस स्थानपर बिना बहुत कुछ शहद गिराए ( लालच दिए ) और तेल खर्च किए काम नहीं चलता। इंग्लैण्डके उपनिवेश आदि इस बातके दृष्टान्त हैं। अँगरेज बराबर उनके कानमें यही मंत्र कते आ रहे हैं.---" यदेतत् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव । " लेकिन वे केवल मंत्रमें भूलनेवाले नहीं हैं-वे अपने सौदेके रुपए गिन लेने हैं। ___ लेकिन हमारे लिये सौदेके रुपयोंकी बात तो दूर रही, दुर्भाग्यवश मंत्री भी आवश्यकता नहीं होती। ___ जब हम लोगोंका समय आता है तब इसी बातका विचार होता है कि विदेशियोंके साथ भेदबुद्धि रखना जातीयताके लिये तो आवश्यक है परन्तु वह इम्पीरियलिन्मके लिये प्रतिकूल है, इसलिये उस भेदबुद्धिके जो कारण हैं उन सबको दूर कर देना है। कर्त्तव्य है । लेकिन जब ये कारण दूर किए जायेंगे तब उस एकताको भी किसी प्रकार जमने या बढ़ने न देना ही ठीक होगा जो इस समय देशके भिन्न भिन्न भागोंमें होने लगी है। वे बिलकुल खण्ड ग्वण्ड और चूर्ण अवस्थामें ही रहें, तभी उन्हें हजम करना सहज होगा। __भारतवर्ष सरीग्वे इतने बड़े देशको मिलाकर एक कर देनेमें बड़ा भारी गौरव है। प्रयत्न करके इसे विच्छिन्न और अलग अलग रखना अँगरेज सरीखी अभिमानी जाति के लिये लजाकी बात है। लेकिन इम्पीरियलिज्मके मंत्रसे यह लज्जा दूर हो जाती है। ऐसी दशामें जब कि साम्राज्यमें मिलकर एक हो जाना ही भारतवर्षके लिये परमार्थ-लाभ है तब उस महान् उद्देश्यसे इस देशको चक्कीमें पीस कर विश्लिष्ट या खण्ड खण्ड कर डालना ही ' ह्यूमैनिटी ' ( humanity= मनुष्यत्व ) है।
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy