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________________ १२१ राजभक्ति। राजपुत्रने भी जान पड़ता है, सुप्त राजभक्तिको जगानेके लिये ही यह यात्राका कष्ट स्वीकार किया था, परन्तु क्या उन्हें 'सोनेकी छड़ी' प्राप्त हुई ? अनेक घटनाओंसे यह बात स्पष्ट दिखलाई देती है कि हमारे राजपुरुष सोनेकी छड़ीकी अपेक्षा लोहेकी छड़ीपर ही विशेष आस्था रखते हैं ! वे अपने प्रतापके आडम्बरको वज्रगर्भ विद्युतके समान क्षणक्षणमें हमारी आंग्बोके आगे चमका जाया करते हैं। उससे हमारी आँखें चकचोंधा जाती हैं, हृदय भी कॉपने लगता है किन्तु राजा प्रजाके बीच हृदयका बन्धन दृढ़ नहीं होता-बल्कि उल्टा पार्थक्य बढ़ जाता है। __ भारतके भाग्यमें इस प्रकारकी अवस्था अवश्यंभावी है। क्योंकि, यहाँके राजसिहासनपर जो लोग बैठते हैं उनकी अवधि तो अधिक दिनोंकी नहीं रहती; पर यहाँ उनकी राजक्षमता जितनी उत्कट रहती है, उतनी स्वयं भारत-सम्राटकी भी नहीं है। वास्तवमें देखा जाय तो इंग्लण्डमें राज्य करनेका सुयोग किसीको भी नहीं मिलता, क्योंकि वहाँकी प्रजा म्वाधीन है। पर यहाँ ज्योंही किशी अँगरेजने पैर रक्खा कि उसे तत्काल ही मालूम हो जाता है कि भारतवर्ष अधीन गज्य है। ऐसी दशामें इस देशमें शासनके दन्भ और क्षमताके मदको संवरण करना क्षुद्र प्रकृतिके अफसरोंके लिये असंभव हो जाता है । जिसके वंशमें पीढ़ियोंसे राज्य चला आया हो, ऐसे बुनियादी राजाको राजकीय नशा बेहोश नहीं कर सकता; परन्तु जो एकाएक राजा हो जाते हैं उनके लिये यह नशा एकदम विषका काम करता है। भारतवर्षमें जो लोग शासन करने आते हैं, उनमेंसे अधिकांशको इस मदिराका अभ्यास नहीं रहता। उन्हें स्वदेशकी अपेक्षा इस देशमें बहुत
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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