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________________ राजा और प्रजा। २४ मान, ईसाई और पारसी आदि धर्मज्ञोंसे धर्मालोचना सुना करता था। उसने हिन्दू स्त्रियोंको अपने अन्तःपुरमें, हिन्दू अमात्योंको मंत्रीसभामें और हिन्दू वीरोंको सेनानायकतामें प्रधान आसन दिया था । उसने केवल राजनीतके द्वारा ही नहीं बल्कि प्रेमके द्वारा समस्त भारतवर्षको, गजा और प्रजाको एक करना चाहा था । सूर्यास्तभूमि (पश्चिम) से विदेशियोंने आकर हम लोगोंके धर्ममें किसी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन प्रश्न यह है कि वह निर्लिप्तता प्रेमके कारण है या राजनीतिके कारण ? क्योंकि इन दोनोंमें आकाश और पातालका अन्तर है। किन्तु एक महदाशय भाग्यवान् पुरुपने जो बहुत ऊँचा आदर्श खड़ा किया था उस आदर्शकी किसी एक सारीकी सारी जातिसे कोई आशा नहीं की जा सकती। इसीलिये यह बतलाना कठिन है कि कविका उक्त स्वप्न कब सत्य होगा। और यह कहना इस लिये और भी कठिन है, कि राजा और प्रजामें जो आने जानेका मार्ग था उस मार्गको दोनों पक्ष बराबर काँटे बिछाकर घेरते जा रहे हैं और दिनपर दिन वह मार्ग बन्द होता जाता है । नए नए बिट्टेप खड़े होकर मिलन-क्षेत्रको आच्छन्न करते जा रहे हैं। राज्यमें इस प्रेमके अभावका आजकल हम इतना अधिक अनुभव कर रहे हैं कि जिसके कारण मन ही मन लोगोंमें एक प्रकारकी आशंका और अशान्ति बढ़ रही है। उसका एक दृष्टान्त लीजिए। आजकल हिन्दुओं और मुसलमानोंमें जो दिनपर दिन बहुत अधिक विरोध बढ़ता जाता है उसके सम्बन्धमें हम आपसमें किस प्रकारकी बातचीत किया करते हैं ? क्या हम लोग लुक छिपकर यह बात नहीं कहते कि इस उत्पातका प्रधान कारण यही है कि अँगरेज यह विरोध दूर करनेके लिये यथार्थ रूपसे प्रयत्न नहीं करते । बात यह है कि अँगरेजोंकी
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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