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________________ ( १०५ ) - - .. को कुतूहल सा हुआ। वह मुंहफट तो था ही, बोलने में भी असभ्य, लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ ! फिर अपने ज्ञान और साधना का गर्व भी था उसे । तिरस्कार के स्वर में वह वोला-- "अरे ! अरे! यह क्या तमाशा कर रहे हो ? तू कैसा तापस है। ध्यान करने के स्थान पर जूत्रों को बीन रहा है? ये एही तेरी मेहमान हैं। तू इन जूओं का शय्यात्तर (पाश्रय केन्द्र ) ही लगता है, जो बार बार उठाकर इन्हें अपनी जटाओं में विराजमान कर रहा है।" - गौशालक का कटु आक्षेप सुनकर भी वैश्यायन चुप रहा। उत्तर नहीं पाकर गौशालक को फिर जोश आया और दूसरी बार कुछ जोर से, कुछ और कठोर शब्दों में पुकारा । . . . . .. 'प्र. २५६ गौशालक. के कटु आक्षेप सुनकर वैश्यायन ने ... . क्या किया था? . . . . उ. बार-बार के वचन प्रहार से तापस का क्रोध ... . - जाग उठा। वह तिलमिला गया, लाल-लाल :: अंगारे-सी आँखो से · गौशालक को निहारने
SR No.010409
Book TitleMahavira Jivan Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirishchandra Maharaj, Jigneshmuni
PublisherCalcutta Punjab Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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