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________________ जनेन्द्र की कहानिया दगमागम "तुम जाके भेजो तो उने।" । भल्लाहट में बात को सक्षिप्त करते हुए बोले-"तुम जाके जा उने ।" अभी भेजती है । लेकिन तुम्ही सार करते हो। और बनत पर तुम्ही हाय भी उठाते हो । अव मत उठाना हाथ । काहे देती ह।" । राम कुमार बहुत ही सीझ गये। उन्होने माथे पर हाग मार पर पहा-"अरे, बाबा, खतम करो । जाग्रो।" "हा, सतम भी अव में ही कर ।" पाहती हुई, बीवी जी कमरे से बाहर हो गई। राम कुमार क्षुब्ध-मन वैठे रह गए। थोडी देर मे वह वहा प्राई, जिसका नाम दुप्पी बताया गया था। वह द्रौपदी थी । सच्ची और पहली द्रौपदी कैसी होगी, पता नहीं। पर ऐमी रही हो तो भी महाभारत का काम पायद थोडाबहुत नल जा सकता था । गुन्दर थी. यह गाना पर्याप्त नहीं। गौन्दयं मे जो अतिरिक्त था, वह ध्यान खीचता था। अवस्ना अधिक नहीं थी। पर अभी मे अन्दर को दृढता और प्रसरता गना दे जाती थी। राम कुमार जब अपनी इस कन्या को देसते, तो किनित चपिन रह जाते । 'वह गब इसमे कहा मे या गया है, जो हम इगो माता-पिता दोनो मे किचिन भी नहीं है ? छुटपन गे देगते पाये है। बच्ची थी, तब भी नामान्य रूप और प्रचार मी बच्ची नही थी। अपनी रणने और चलाने को जगे छुटगन गही उसके पाग कुछ-न-नाष्ट हो जाता था।' पाज हर समय उनको समक्ष देखकर गम चमार पो सचमुच लगा, कि तारना-प्रताडना सब व्यर्थ है। भाग्य ही पान गमयं ।। आगे कहा-"बैठी, बेटी।" द्रौपदी बैठ गयी। "एक बात पृछ, तो बतायोगी।" नोपदी चुप रही।
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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