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________________ 7 ये दो ८९ वोनी । "जी।" "तुम वहा रह मकोगी?" "जी।" "रह सकोगी ?... लेकिन पली तो उस घर मे मौजूद है ?" "मैं निभा लूगी।" "वया कह रही हो?" राम कुमार कुछ देर निस्तब्ध रहने के बाद वौसला कर बोले-"निभा लोगी? पर कैसे निभा लोगी? उप-पत्नी बनकर ? विपली वनकर ? एक्स्ट्रा वनकर ? तुम निभा लोगी, पर जानतो हो कि कानून निभाने को तैयार नही होगा ? दूसरी पत्नी हो नहीं सकती।" "आप उनसे बात कर लीजिए।" "तुम किससे बात कर रही हो, मालूम है ? बाप से बात कर रही हो । में उसने यया वात करू! यह कि तुम पाने को तैयार हो ? और मै तुम्हारा पिता तुम्हें वहा विठाने को तैयार हूं? यही बात करने को रह जाती है, "क्यो ?" "वह मुखी नही है । बडे दुखी हैं, बाबू जी।" "गोह । तो वह सुख तुमसे हो सकेगा । तुम शायद यही सोच रही हो, कि उने सुन मिलना चाहिए, और तुम सुख दे सकोगी। विमला को तुम गाभी गहनी प्राई हो । उनने तुम्हें मा का प्यार दिया है । उस दुनार का यह प्रनिदान दोगी । क्या तुम सचमुच समझ सकती हो, कि विमला को दुरा देवर तुम्हारे पास मुग बचा रह जायेगा, कि खुद पा समो या गिनी को दे सको ? विमला को चिन्ता और चिता पर पया तुम उमले पनि के सुनो भवन मा निर्माण करना चाहती हो?" __द्रोपदी ने पनी । उनने अपने मुह यो हायो से हक लिया। हठात् बोली-"नहीं, नहीं, नहीं ! में उन्हें दुल नहीं दे सकती। किसी तरह में यह नहीं पर सख्ती । लेकिन वह तो यह तो मैं उनमे यही कहती रही। पूछती रही है। यह परते हैं-"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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