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________________ ये दो ८७ वीवी जी आई, तो वह कोई विशेष विश्वस्त और आश्वस्त भाव लकर उपस्थित हुई, यह नहीं कहा जा सकता। आते ही बोली-"क्या है ? तुम सोये नही ?" "तुम्ही क्या सो सकी हो ? सुनो, अब और कोई रास्ता नही है । उससे मिलना ही होगा ?" "मिलकर क्या होगा? उसकी ज़िद तो जाहिर है । वह एक नम्बर है, जो तुम समझने हो । झुकने वह क्यो लगा? तुम्ही सोचो, इपर ही ठीक न होगा, तो उपर क्या प्रागा रसी जा सकती है ? अपनी लाडली को तो सभालो । उनी के वन-बूते पर वह कूद रहा है।" "तुमने उससे बात की?" "यात क्या साक करू ? वह तो गुम-सुम हो रहती है । बोले जाक, पूछे जाऊ, और अन्त मे हार कर में ही मिर फोड लू । मैने कहा था, कि तुम बात करो। तुम मे वह कुछ डरती भी है। मुझे तो गिनती तक नहीं । तुम्ही ने उमे चढ़ाया है । "तव ने कहती पा रही थी, कि समझो-नमो। लेकिन तुमने एक नहीं सुनी । तुम्हें लडकी का भरोसा पा, तो अब सभालते गयो नही ? हर बात मुझ पर देते हो। बिगाड़ते बुद हो, सभालने को मैं हू ।" "अच्छा, अच्छा नाके उमी को भेज दो।" “भेज तो दूगी, लेकिन देखना, डाटना-उपटना नहीं। दो दिन में बेचारी प्राधी हो गई है । वह पौन नुग में है । लेकिन कम्बरल'"उने तो जेल होगा चाहिए, जैत । पर तुम में कुछ नहीं होने का दुनिया मे । मम लिया।" उनके पर्तव्य का मान इतना रह जाय, यह प्रसन्नता का भवादन पा। सुनकर महामाय को भौहें चडी । लेकिन उन्होंने अपने को काबू में किया। महा--"अरला, यावा । जामो, टुप्पी को भेज दो।" "देगना प्यार मे नमाना। एक दफा गार निया, वन्न वह बहुत
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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