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________________ झमेला दार है। मर्द की इसी कमजोरी को अगर औरत अपनी ताकत समझे जाएगी तो वह पागल होगी । तब जानती हो, पति उसका मालिक बनेगा और साथी नही बन सकेगा। पति मालिक का और पत्नी माल मालिकी का नाम होगा और उसका बन्धन अन्तिम होगा । तुम्हे नहीं मालूम कि जिस भापा में सोच रही हो वह प्रेम की नही, अर्थ की है। इसीलिए तुमसे कह रहा हू कि पति के घर की शरण ली है तो वही रहो और वही ठीक है । उसमे तुम पिम जानो, मर जाओ, तो भी गलत नहीं होगा। क्योकि क्योकि 'वतायो, जो प्यार था वह प्यार निकला ? फिर वह उड कैसे गया ? • 'मैने तुमसे पूछा नहीं है "सुपमा, माफ करना । सच बतानो, क्या हुगा ?" 'तुम क्या उसे नही जानते ? देखा तो है। कई बार देखा होगा।" "हा, देखा है । जानता हू । लेकिन, हुआ क्या ?" "क्या बताऊ राजेश । मुझमे सब हो गया था। कोई खूबसूरती न थी जो मुभमे न हो! वह जिन पासों मे देखता था उनमे कुछ कमी न रहती थी । मानो वह निगाह सारी दुनिया, सारा खजाना, सारा स्वर्ग मुझमे पा जाती थी । राजेग, वे दिन ऐसे स्वाब मे गुजरे किं कुछ कहा नहीं जा सकता । मै उमगी रहती थी और घर में नौकर को भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। मेरा मन नहीं भरता था जब तक बर्तन में न गाजू, मफाई मै ही सब न मरू और साना भी खुद ही न पकाऊ । एक दफे पाना बनता पा और हम निकल जाते थे। जहां चाहते जाते, और सब जगह रंगीनी थी और पूवमूरती थी और वन मसमल बन जाता पा। लेकिन मेरे जिस्म मे से जाने गया सोने लगा। और उसगे यानो मे से भी न जाने क्या कम होने लगा । लमहे वहीं होते और सब मंजर बनी रहता । लेकिन, यह बतलाता कि मैं उन्नीस-बीस वरन की क्यो न हुई और कुपारी पयो न हुई। बोर मुझे भी सोचना परना कि हाय उन्नीस-चौरा वरनीवारी में पयो न हुई । लेकिन, कुवारपन मेरै बस का न था । और उसको उनी यो पाहत होने लगी थी। मैं मैने
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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