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________________ ८० जैनेन्द्र को गहानिया दगवा भाग खूवी से कि वे औरत हैं । त्यो, मुझमे क्या अब कुछ वाकी नहीं रहा गो पैसे की बात करते हो ?" ___"वाकी होगा, इसीलिए शायद चुपचाप पति ने अपना पर फिर तुम्हे पेश कर दिया |-है न?" " "गजेश, निकल जायो यहा से । मै बेवकूफ थी जो तुम्हें बुलाया।" "हा, देवकूफ थी। और इससे पहले भी जो की बेवकूफी की । तुम प्यार करती हो, मैं वेबकूफी वहता हू । सुपमा, इसीलिए पाया है कि तुम समझ जायो कि बेवकूफी क्या होती है।" ___ "तुम प्यार को बेवकूफी कहते हो, तुम ? अभी तक तुम्ही न थे कि मुझे समझाते थे कि वही एक सत्य है, वही परम सत्य है । परमेश्वर उसने दूसरा नही है । और अव ये क्या कहले लगे?" राजेश ने कडवा बनकर कहा-"कह ये रहा ह कि दो सौ रपये मे एक ठीक कमरा हो सकता है । उस हिसाब से पाच-उ. सौम्पया ऊपर का और सर्च समझ लो। सात सौ रपया माहवार तुम कितने महीने तक चाहती हो मै तुम्हें उधार देता रहू ?" सुपमा व्यथा और वेदना से भरे स्वर से बोली-"राजेग ।" "शायद सामयिक पतित्व मुझे एवज में देने की बात तुम्हारे मन में हो । नव अवश्य उधार उधार नही रह जाता। पयो, वह वान है?" "राजेग, में रह चुकी है कि तुम चले जायो यहा में !" "-नहीं । वह मुझे मजूर नहीं है। वह महगा नौदा होगा। इसमे तो नन्ना प्यार होता है। प्यार में राव मुपत मिल जाता है क्या यह तुम्हारे पास है, या मेरे पास है, जो दिया जा सके ? मुझे तुम पर माननी हो जो प्यार तो परमेश्वर कहता है । में अब भी उने परमेघर पता हु । तव प्यार हमारा रहा है, परमेश्वर का है और उसमे गौरा नहीं हो सकता।" गुनो नुपमा, बहको मन, योर बकाया मत ! ये तीय है कि कमाता मदं है, गनंती प्रोग्त है। पंगे पर प्रधिका गोरा मानती और भोली है, ग तो मनाने और गनिमाने भर काम
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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