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________________ जैनेन्द्र मी कहानिया दसवां भाग जहर भी साया ! और भी रास्ते आजमाये । पर अपने से और प्रापरा से नफरत ऐमे घुमड़ती हुई उठती कि हद पार फर वह प्यार बन पाती। हम एक दूसरे को नफरत करते और फिर एकाएक प्यार में डूबकर, फिर नफरत करने का दम पा जाते | उस सबमे स्वाद भी पा राजेश । वा तेज स्वाद था । मै उसमे रहे जा सकती थी। मरती-मरती भी जिए जा सकती थी • पर क्या हुआ कि उसने कहा, दिल्ली चलेंगे।" ___मैंने इस बीन सुपमा का एक हाथ अपनी दोनो होलियो के बीच ले लिया था और वह वही टिका हुआ था। अब स्वय उठापार सुपमा के हाथ को मैंने सुपमा की गोद में ही छोड दिया। सुपमा ने कहा-- "वो ?" मेरा स्वर भरा था । बोला- "कुछ नहीं !" सुन कर सुषमा ने अपना हाथ वढाकर मेरी उ गलियो को ले लिया और कुछ देर उन्हे उमी तरह थामे रही । लेकिन मुझ से सहयोग, सहाग न गया और सुपमा का हाथ वापन अपनी ही गोद में सिंच गया। मैने जाना कि उसने मेरी ओर देखा है। मै जाने पहा पार देरा रहा था और जाने क्या देख रहा था। "सुन रहे हो?" __जाने दूर कहीं कुए के भीतर से पावार पा रही हो, ऐमे बोला ___ "नहीं । गुन नहीं रहे हो !" "हा, छोरी । वह सब होता है । तुमने बहुत सहा । प्रागे मुझे तहने को न कहो ।" "नहीं, सुनो। हम दिल्ली आ गए। फिर जानते हो, म रोज गया दुमा ? बात थी कि तीमरे रोड बम्बई लौटेंगे 1 में उसी पी मोपती थी और चीज़-चन्त के इन्तजाम में थी। तभी या देती है कि एक संबरे वह चुपचाप गायब हो गए है ! बानी नियान जी की और अपना सामान गहना लिया था । मुझे पता नहीं हुमा, शाम त पता नहीं
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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