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________________ ६१ उन्हें अपने से ओझल चाहता था । जेव से ग्रन्त मे रूमाल निकला और वह भी उन कागजो के ऊपर छोड़ दिया । ग्रव उसने निश्चिन्त होकर कुर्सी की पीठ पर सिर पीछे किया और आराम से हो बैठा । मालूम नही कितनी देर यह मजलिस रहीं। काफी काफी काफी देर तक रही । उसे किसी की चिन्ता न थी । वह सानन्द और निर्द्वन्द था । वह अपने पूरे पन में था इसलिए सबके प्रति प्रसन्न था । उसे याद था कि कोई तिक्तता उससे नहीं प्रकट हुई है और वह किसी के लिए श्रगम नही बना है । कमरे का वातावरण प्रकाश को लहरो की तरह मानो उमडता और नया-नया रूप लेता जाता था । उसीके साथ लोग भी अदल-बदलते थे । निश्चित एक बात थी कि वह केन्द्र में है । अन्त मे समय होता गया और मालूम हुआ कि यह स्टुडियो है और उठकर घर जाना है । तब उसने रूमाल समेत सब कागजो का ढेर उठाकर दाहिनी जेब मे ठूम लिया । सब कुछ गडमड था और उसे चिन्ता न थी । उसने देखा कि उसके साथ प्रास-पास के लोग उठ खडे हुए थे । सव कृतार्थ दीखते थे और यह अपना सम्मान उसे विशद किए जा रहा था । सब कही श्रानन्द का भाव था और परस्पर मे विदा लेकर मानो कृतन वे अपनी-अपनी राह चले जाने को उद्यत ये । किंतु तभी मानो नितात उदासीनता में, एक बार फिर शैलेन्द्र अपनी आराम कुर्सी मे हो बैठा और जेब मे ठुसे हुए कागज उसने बाहर किए। लोग अव लगभग जा चुके थे । नव ढेर कागजी का उसने मेज पर पटक दिया और फिर एक-एक को हटा कर उनमें सरकारी सिक्के के नोट देखने लगा | यह क्या ? नोट तो वे कही ये नहीं । उसने सब कागजो को उलटा-पलटा । एक-एक कोर दश कर और फैलाकर देखा । लेकिन करारे कागज वाले वे पाच-पाच और दस-दस रुपये के नोट गायव थे । उनमे से एक भी कही नही मिल रहा था | उनने फिर जल्दी-जल्दी कागजों को देना । जेवो को टटोला | कोट उतारा, पैट सखोला, पर नोट हाथ नही थाए। उसने अपने चारों ओर देगा। लोग वन जा चुके थे । रोशनी थी लेकिन घुम्ती मालून कष्ट •
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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