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________________ जैनेन्द्र पी महानियो दया भाग होती पी । उनके गुर समान न पाया । उमे निमय था कि मिनीने उन नोटा मो ने लिया है और फिर चुपचाप गरमा गया है । मान हो रामना ? गया वार.. स्या यह ?..'या यह ...अनेक-अनेक पेहरे भीर में से टगे याद पाते । पौर प्रगट होने देर न होनी किचे गमको मय सामागोते भी चले जाते थे । उमने उन सभी को भी उनमेमएयो दोषी पाया । लेकिन पया हो सकता था | मन में यानों में रंगलिया जान फर दोनो हलियों के बीच उसने टोनों पनपटियों को मिया और गिर पाम लिया । देखते-देगते यह मिर नीचे भुम प्रामा। पुछ गुबनी की आवाज प्रतिमा ने सुनी । अमेराया और उठ पर नने बत्ती जला। पत्र मालूम हुआ कि उसमा पनि मोत-गोगे गुवा रहा है। उगने पर मा प्रगटा धीमे से हिलाते हुए पहा, "गुनो . अजी सुनो।" पति ने चौक गर माग गोली । मानो वह भाग पछपायानन ममी पा-बसरा गा पर देग उटा पोर निन्याय में बोला, "पापा?" पानी ने गृधा, "मी, मया बात है?" पनि ने भाग फाट पर T, "या" । "म.प्र. पटना। मापद सपना ।" "गा!" मार एमाण यह रना, पिता , "नही दिन ही। आने दो। परहमा समा" मापन गर" " !... " "न , दो, चार 'T TAM" "मर RT FI " गये ।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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