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________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग युवती बोली, "यह क्या बात है ?" "वेठो ।" "अाज यह क्या है ? वडे ऐसे-वैसे दोस रहे हो।" "हा | दावत मेरी ओर से है । है न ? लेकिन मेरे वटए मे कुल जमा साढे सात रपये बचे हैं ।" __ "वस ? यह कोई नई बात तो नहीं है।" "नई नहीं है । लेकिन कल साडे तेरह रुपये एक को उल्लू बनाने मे लग गए । मजा तो पाया । लेकिन उतनी रकम के लायक वह न था।" "कौन था? तुम्हारा शिकार नामी होता है।" __ "छोडो, छोडो' यह लो, (मीनू मामने करते हुए) बार तुम्हे देना है।" भागता ने मीनू के शीट पर मरमरी निगाह दौडाई और सासा आर्डर दे दिया। फिर बोली-"सच कहो, ऐसे कब तक रहने की सोचते हो?" "क्यो, इम रहने में क्या कमी है ?" "रुपए की कमी नहीं हो जाया करती है ?" "पोह | रुपया तो खेल है । नया उसकी कमी, यया ज्यादती । और तुम जो हो।" "अपने ही लिए तो कहती हूं। बोलो, क्या नोचते हो?" "तुम जानती हो, में शादी का प्रादमी नहीं है।" "लेपिन ऐसे में कब तक सचं परती जा सकती?' विवाह हो तो मेरा सब तुम्हारा है । नहीं तो..." "तुम्हारा मुझ पर बचं वरना, मैंने कहा न घा, सही नहीं है। कियो प्रागा मे ऐमा करना और भी गलत है।" "यह तुम यह रहे हो ? नोचो कि मय हमारे बीच वाली क्या बचा है ! विवाह की रूपरी विधि की ही तो पात है।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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