SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग "मनोरमा । • यह क्या है ?" "अगिया है।" डी० एम० खडे हो गए। बोले-"यह क्या बदतमीजी है ?" उठकर वह खुद गए और देख लिया कि हा चटकनी वन्द है । दूसरे दरवाजे की भी बन्द है। वह फिर अपनी जगह पर आ गए और खडे रह गए । अब उन्होने मनोरमा को देखा-क्या सच, वह मनोरमा थी । वह यकीन नहीं करना चाहते थे। उसके लिए काफी अवसर भी था। बोले-"यह क्या तमाशा है ? ___मनोरमा ने धीमे से कहा-"मेरे पास इसमे कीमती उपहार दूसरा नहीं था। यह वही फटी अगिया है !" "मनोरमा ।" "नहीं, मैं याद दिलाने नही आई । लज्जित करने भी नही आई हू । उमसे क्या मिलेगा--तुम्हे या मुझे ?" "मनोरमा !" "मैं तो जान-बूझ कर दूर हो गई थी। मा-बाप से और तुमसे । तुम्हारे साथ बधकर तुम्हे रोकती और खुद को भी बोझ वनाती, क्या फायदा था उस सबसे । “अब वेटा सनह वर्ष का है। जगरूप नाम रखा है। नहीं तो क्या, जग का रूप तो है ही । फर्स्ट क्लास पाया है। आगे कालेज में पढना चाहता है। मेरे पास इन्तजाम नहीं है । तुम्हे कष्ट न देती, पर वह बहुत पढना चाहता है और " "वह जरूर पढेगा । जहां तक चाहेगा पढेगा । पर तुम गायव कहा हो गई थीं मनोरमा? मैंने बहुत याद किया।" "किया ही होगा।" "अब तुम क्या कर रही हो?" "नौकरी कर रही हू, पढा रही है।" "तुमको दया नही आई मुझ पर ? कि.. " "प्रेम मे दया कब होती है 'तुम दया नही कर सकते थे, मै दया नहीं
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy