SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथावत ३५ ?" तरफ रख दिया और कहा, "सेवा वताइए - मैं क्या कर सकता हू मनोरमा चुप वैठी रही । वह गहरे असमजस में थी । ऐसे एक-दो मिनट बीत गये | डी० एम० उसे देख रहे थे । उसने धीमे-धीमे कहना शुरू किया, "मेरा एक लडका है । सत्रह वर्ष की अवस्था होगी ।" डी० एम० देखते रहे । एकाएक वोले, "आप यही रहती हैं ? भागलपुर जिले मे ?” "जी, नही । दूर से आई हू | भाया है | श्रागे पढना चाहता है ।" लडका मैट्रिक मे फर्स्टक्लास डी० ० एम० देखते रहे । वह कुछ याद करना चाहते थे । याद मदद नही कर रही थी । अनायास बोले, "भागलपुर जिले की आप नही हैं?" "नही । " " तव तो " कहते हुए, श्रनायास उनका हाथ पैकिट की तरफ बढा थोर खीच कर उन्होने उसे पास लिया । उगलियो से रिवन को खोलते हुए बोले, "इस जिले की होती तो शायद मे कुछ कर सकता था । ग्रव निज निजी तौर पर कुछ दे भी सकू, ज्यादे इन्तजाम तो मुश्किल है ।" मनोरमा कुछ वोली नही । वह पैक्टि को खोलती हुई डी० एम० की उगलियो को देखती रही । "ग्रापका शुभ नाम ?" " जाने दीजिये ।" रिवन खुलने पर उन्होंने कागज हटाया । उसके अन्दर फिर एक कागज की तह को हटाया । आखिर सवसे अन्दर की तीसरी कागज की तह को सोला और नीचे जो चीज निकली उसको क्षण एक देखते रह गए । मानो समझ न पा रहे हो । मनोरमा ने उस निगाह को देखा । तेजी से उठकर वह गई और उसने दरवाजे की चटकनी अन्दर से बन्द कर दी। दूसरे दरवाजे को भी बन्द कर दिया। अब वह फिर अपनी कुर्सी पर श्रा गई बोली, "मैं मनोरमा हू ।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy