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________________ महामहिम अल्पाहार १३ पर वह तो कृपा से भी वडी करुणा का था । इसलिए और भी ग्रावश्यक था कि वह अपने कर्त्तव्य मे प्रधूरी न रहे । उसने इसलिए महामहिम की बात को सुना - अनसुना किया और उपाहार के अन्य पदार्थ एक-एक कर वह लाती चली गई । महामहिमकुम की पीठ थामे उसी तरह खडे रहे । देखते रहे कि उपा एक-एक कर पदार्थ लाती जाती है और मेज पर करीने से उन्हे रखती जानी है | उन्होने उपा के काम मे कोई व्याघात नही उपस्थित किया | जाने वह क्या सोचते रह गए । निश्चय ही उपा उनकी श्राज्ञा का उल्लघन कर रही थी । पर यह उल्लघन उन्हे खटक नही रहा था । उनका मन चिन्तागो और विचारो से मानो इस समय हल्का हो रहा था । वह महामहिम है । इसी का ध्यान उनसे खो गया था । कोई है जो एक-एक कर तरह-तरह की चीजे लाकर मेज पर रखता जा रहा है । वह स्वयं उनमे से किसी को छुएगा नही । उसका काम सिर्फ लाना और रख जाना है । वह तो कोई दूसरा ही है जो उन सब पदार्थों का भोग पाएगा । उन्हे अनोखा लग रहा था यह कि वह दूसरा कोई और नही, स्वय वही है । अब तक कभी उन्हें यह नही सूझा था । प्रक्ट था कि वह महामहिम हैं और दूसरे सेवक हैं । एकदम वैधानिक था कि दूसरे सेवा करे और वह सेवा पाए । लेकिन इन क्षणो मे वह वैधानिकता बीच से जाने कहा उड गई थी । एक व्यक्ति के मानिन्द होकर कुर्सी की पीठ यामे वह खडे रह गए थे और देखे जा रहे थे कि दूसरा व्यक्ति है जो सहमा डरता हुआ सा उनके लिए एक पर एक व्यजन और पदार्थ वाता और यथाविधि रखता जा रहा है । मानो उसकी कृतार्थता बस इतने मे ही है । उस अस्तित्व की, कौशल की, व्यक्तित्व की धन्यता इसमे है कि वह स्वयं उसे स्वीकारे और भोग पाए । इस समय बडा ही मनोसा लग रहा था वस्तुनो का यह विधान और उन्हें अपनी महामहिम की वात विल्कुल समझ न या रही थी । चीजें लाई जाती रही और रखी जाती रहीं । महामहिम अन्त
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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