SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग तक बैठे नही । सहसा उन्होने पाया कि जो रह-रह कर जा रहा था, और ला रहा था, वह इस बार जाकर वापस नहीं पाया है। दो एक क्षण इस पर वह ठहरे। फिर पुकारा, "उषा!" उपा अव जाने की तैयारी मे थी । महामहिम की इस नई अवस्था को देखकर उसने अपना काम कुछ सक्षिप्त अवश्य मान लिया था। अर्थात् कॉफी ढालकर कप स्वय तैयार करके देने की आवश्यकता उसने आज नही मानी थी। यह भी उसे याद आ रहा था कि आज्ञा हो चुकी है, उसे मा के पास जाना चाहिए । तभी उसने पुकार सुनी और वह उपस्थित हुई। महामहिम ने कहा, "यहा बैठो और एक कप और ले पायो।" उपा अविश्वस्त बनी सी खडी रह गई। "सुना नहीं, एक कप और ले पायो।" उषा काप पाई और हिल न सकी। "कहा यह है कि जाकर कप लाओ।" मानो करता ही थी महामहिम के शब्दो मे । उपा गई और कप ले आई । और प्राकर फिर खड़ी हो गई। "कहता हूं बैठो यहा । मेरे लिए कप वनायो। और अपने लिए भी।" सचमुच इसमे कहा दण्ड उसके लिए दूसरा न हो सकता था। वह वन्दी की भाति प्राजा पर काम करने लगी। "क्यो, मा का रयाल पा रहा है ? कहा था तव नहीं जा सकी। व काफी खत्म करके ही जाना हो सकेगा।" उपा घबरा रही थी। महामहिम को भी ध्यान पाने लगा था विधान की मर्यादा का । कर्मचारी-गण इधर-उघर या निकलेंगे । वे वयानीचेगे? उपा तो इस विचार में अपने भीतर मरती ही जा रही थी। लेकिन महामहिम उस विचार पर अन्दर ही अन्दर तनिक और उत्साहित हो पाए।
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy