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________________ जैनेन्द्र की पहानिया दसवा भाग बुरा नहीं हुआ है । शायद दिन-रात उनका ही होना भोर रहना अच्छी वात नही है । कभी-कभी हम तुमको भी होना चाहिए। अभी वह खडे ही थे कि उपा एक-एक करके चीजें लाती गई और उनके सामने मेज पर सजाती चली गई । वह वैठे नहीं, देखते ही रह गए । उपा सामान्य-सी लड़की है । असुन्दर नहीं है, पर सुन्दर भी नही है। बहुत ज्यादा जवान भी नहीं है । उल्लेखनीय कुछ भी उसके आसपास नहीं है । पर महामहिम उसे देखते रह गए और उन्हे अपने मन मे यह अनुभव विल्कुल गलत नहीं मालूम हुआ कि उपा है और देश-विदेश नहीं हैं । उन्हे वडा अचम्भा मालूम हुमा कि देश-विदेश को उलझने किस आसानी से उतर कर दूर हो जाती है । मनुप्य को सामने और सच बनाने की देर है कि वाकी फिर आप ही गौण और क्या हो आता है। सहसा बोले, "वस, बस, उपा। बहुत हो गया । अब तुम मा के पास जा सकती हो।" उपा चकित-सी बोली, "जी !" "बस और नहीं चाहिए । इतने से चल जाएगा। तुम जानो।" "मा अब ठीक है।" "ठीक हैं तो जाकर मेरा उन्हे प्रणाम देना।" "जी?" महामहिम ने रुष्ट बनकर कहा, "इतना भी नमभती नही हो क्या ?" अपनी मा को जाकर मेरी तरफ से प्रणाम कह देना । और मुझे सब हाल बताना । सुना ? समझी ? बस अब जानो।" उपा जा को सपती थी । ब्रेकफास्ट की तिहाई भी तैयारी नहीं हो पाई थी ! काफी प्राई थी और बस टोस्ट । इस अधूनेपन में वह कैसे जा सकती थी? पर महामहिम रारे में और वह कह चुके थे, जाम्रो । मानो रोप में उन्होने कहा था। सच का वह रोप होता तो वह टिपती ही कैसे ?
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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