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________________ १३८ जैनेन्द्र को कहानिया दसवा भाग को क्यो न रखे जो वी ए की जगह एम ए है। मेरा आग्रह तुम्हारे लिए या । उन्होने कहा कि अगर तुम एम.ए की जगह वी ए. को ही रखना चाहती हो तो ठीक है, रख सकती हो । लेकिन फिर सस्या को कुछ लाभ भी होना चाहिए । अगर तुम्हारी कैंडिडेट सवा सौ लेने को राजी हो तो उनकी नियुक्ति हो सकती है। मैने इस पर बहुत प्रतिवाद किया। लेकिन माथुर साहब अपनी बात से न डिगे । बताओ मैं क्या करती ? मुझे ध्यान भी आया, इशारे से तेरी बात कह दू । लेकिन भलीमानस, तैने तो मुझे कसम दिला दी थी।" प्रमीला ने कहा, "तो माथुर साहब वही थे जिन्होने तुम्हारी बात को टाल दिया था, इन्टरव्यू में कि जब तुमने मेरे बारे में कहा था, यह सस्कृत भी जानती है, बी ए मे एक विषय इनका सस्कृत था ! ओह ! वही न जो सुनकर अवना से हस पडे थे, वोले ये, एक विषय तो ऐसे बहुतो का होता है । मैं नहीं मगझती थी कि माथुर ऐसे होंगे।" "हा, बडे सख्त है । मैने कहा भी, तुम्हारी स्थिति के बारे मे कि दो बच्चे हैं, असहाय है । लेकिन माथुर साहव बोले, कि हम क्या कर सकते हैं । यह शिक्षण संस्था है, सदावर्त तो है नहीं।" "अच्छा, यह कहा " "पौर सच बताऊ सुशीला, मुझे लगता है कि वह तेरा चेहरा देश कर सुश नहीं हुए । तुझे पता है कि तू अव तक गजब की खूबसूरत बनी हुई है और कुछ मर्द होते है जो अपने को बतलाना चाहते हैं कि ग्रह, हमे सुन्दरता का आकर्षण नहीं खीच सकता । सच कहती हू जरा तू काम सुन्दर होती तो डेड सो तो मैं तुझे जगर ही दिला सकती थी।" ___ "चलो, हटो ! तुम तो चाहती थी कि मुन्दरता मेरे काम पाएगी। और अब यह .." ___ "मैं क्या करती, तुम्ही नीची, भोली-सी निगाह किए बैठी रही, मौका था कि एक कटाक्ष ही छोटा होता । पर तुम तो." ___ "हसी न रो मुगोला । मै पचास की होने जा रही हूं"यह
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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