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________________ उलट फेर १३६ बतायो, मैं क्या करू, स्वीकार कर लू ?" "नहीं तो क्या करोगी?" 'यही सोचती हू कि नही तो क्या करूगी। लेकिन वडा अपमान जैमा मालूम होता है।" सुशीला ने गहरी सास छोडी । वह इस प्रमोला के प्रति प्रगमा से भी आगे अब लगभग श्रद्धा के भाव रखती थी। छोटी थी, तभी से वह प्रमीला की विलक्षण सुन्दरता के जादू मे आ गई थी। उसके बाद जीवन निकलता चला गया। प्रमीला जो हर तरह सम्पन्न थी। अब इस अवस्था मे आकर विपन्न और प्रायिनी वन आई थी । और मुशीला जो आरम्भ मे असहाय जैसी ही थी, अब इम हाई स्कूल की अधिष्ठात्री थी। वह कुछ दग थी भाग्य के खेल पर । दग यह देख कर भी थी कि प्रमीला भाग्य के थपेडे खाते-खाते भी हारने को तैयार नहीं है और जीवन से जूझे ही चली जा रही है । उसने क्या-क्या नहीं देखा ? क्याक्या नहीं सहा । क्या या जो छुटपन मे उसे प्राप्त नहीं था। राजसी ठाठ-बाट और लाड-प्यार में पली । दूसरी होती उसकी जगह तोटूट ही गई होती । लेकिन प्रमीला जी ही नही रही है, अपने को पूरी तरह सचित रखे हुए चल रही है । विखरी नहीं है जरा भी । सौदर्य उस पर में अब भी उतर नहीं गया है । वह है और समाहित है । एक विस्मयजनक सम्भ्रम अव भी उसके व्यक्तित्व के आसपास दीखता है। सुशीला यह सोचती हुई प्रमोला को देखती रह गई। एकाएक कुछ बोली नहीं। प्रमीला ने कहा, "वताया नहीं, मुझे क्या करना चाहिए ?" मुशीला का मन भारी हो पाया । बोली, "वताने को उसमे क्या है ' स्वीकार करना ही पडेगा । स्त्री को विवशताएं हैं । लेकिन सुन, अब भी कुछ विगडा नहीं है । माथुर साहब बात को नभाल सकते है। तू मुझे कहने क्यो नही देती कि तू......" __ "नही सुशीला, नहीं । तुझे मैं फिर कसम देती हूँ।"
SR No.010363
Book TitleJainendra Kahani 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1966
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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