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________________ जेनतत्वमीमांसा द्रव्यकी अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और अन्य पर्याय व्ययको प्राप्त होती है। तो भी द्रव्य स्वयं न तो नष्ट ही हुआ है और न उत्पन्न ही हुआ है ॥११॥ पद्यपि यह कथन थोड़ा विलक्षण प्रतीत होता है कि द्रव्य स्वयं उत्पन्न और विनष्ट न होकर भी अन्य पर्यायरूपसे कैसे उत्पन्न होता है और तद्भिन्न अन्य पर्यायरूपसे कैसे व्ययको प्राप्त होता है। किन्तु इसमें विलक्षणताकी कोई बात नहीं है । स्वामी समन्तभद्रने इसके महत्त्वको अनुभव किया था । वे आप्तीमांसामें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहकत्रोदयादि सत् ॥५॥ हे भगवन् ! आपके दर्शनमें सत् अपने सामान्य स्वभावकी अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न अन्वय धर्मकी अपेक्षा व्ययको ही प्राप्त होता है फिर भी उसका उत्पाद और व्यय होता है सो यह पर्यायकी अपेक्षा ही जानना चाहिए, इसलिए सत् एक ही वस्तुमें उत्पादादि तीनरूप है यह सिद्ध होता है ॥५७॥ आगे उसी आप्तमीमासामें उन्होंने दो उदाहरण देकर इस विषयका स्पष्टीकरण भी किया है। प्रथम उदाहरण द्वारा वे कहते हैं घट-मौलि-सुवर्णार्थी माशोत्पास्थितिध्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥५९॥ घटका इच्छुक एक मनुष्य सुवर्णको घट पर्यायका नाश होने पर दुखी होता है, मुकुटका इच्छुक दूसरा मनुष्य सुवर्णकी घट पर्यायका व्यय होकर मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर हर्षित होता है और मात्र सुवर्णका इच्छुक तीसरा मनुष्य घट पर्यायका नाश और मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर न तो दुखी होता है और न हर्षित ही होता है, किन्तु माध्यस्थ्य रहता है। इन तीन मनुष्योंके ये तीन कार्य अहेतुक नहीं हो सकते । इससे सिद्ध है कि सुवर्णकी घट पर्यायका नाश और मुकूट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर भी सुवर्णका न तो नाश होता है और न उत्पाद ही, सुवर्ण अपनी घट, मुकुट आदि प्रत्येक अवस्थामें सुवर्ण ही बना रहता है ।।५९॥ दूसरे उदाहरण द्वारा इसी विषयको स्पष्ट करते हुए वे पुनः
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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