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________________ विषय-प्रवेश बाशय है । जैनदर्शनमें प्रत्येक द्रव्यको परिणामस्वभावी माननेकी सार्थकता भी इसीमें हैं। प्रश्न यह है कि अब प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है तो वह प्रत्येक समयमें बदलकर अन्य-अन्य क्यों नही हो जाता, क्योंकि प्रथम समयमें जो द्रव्य है वह अब दूसरे समयमें बदल गया तो उसे प्रथम समयवाला मानना कैसे संगत हो सकता है ? इसलिए या तो यह कहना चाहिए कि कोई भी द्रव्य परिणमनशील नहीं हैं या यह मानना चाहिए कि जो प्रथम समयमें द्रव्य है वह दूसरे समयमें नहीं रहता। उस समयमें अन्य द्रव्य उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे समयमें जो द्रव्य है वह तीसरे समयमें नहीं रहता, क्योंकि उस समयमें अन्य नवीन द्रव्य उत्पन्न हो जाता है। यह क्रम इसी प्रकार अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा । प्रश्न मार्मिक है, जैन दर्शन इसकी महत्ताको स्वीकार करता है। तथापि इसको महत्ता तभी तक है जबतक जैनदर्शनमें स्वीकार किये कये 'सत्' के स्वरूप निर्देश पर ध्यान नहीं दिया जाता। वहाँ यदि 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी माना गया होता तो यह आपत्ति अनिवार्य होती । किन्तु वहाँ 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी न मानकर यह स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वयरूप धर्मके कारण ध्रुवस्वभाव है तथा उत्पाद-व्ययरूप धर्मके कारण परिणामस्वभावी है। इसलिए 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी मानकर जो आपत्ति दी जाती है वह प्रकृतमें लागू नहीं होती। हम 'सत्' के इस स्वरूपपर तत्वार्थसूत्रके अनुसार पहले ही प्रकाश डाल आये है। इसी विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारमें क्या कहते हैं यह उन्हीके शब्दोमें पढिए समवेद खलु दव्वं सभव-ठिदि-णासण्णिवट्ठी हिं। एक्कम्हि चेव समए तम्हा दन्वं खु तत्तिदयं ॥१०॥ द्रव्य एक ही समयमें उत्पत्ति, स्थिति और व्ययसंज्ञावाली पर्यायोंसे समवेत है अर्थात् तादात्म्यको लिए हुए है, इसलिए द्रव्य नियमसे उन तीनमय है ॥१०॥ , इसी विषयका विशेष खुलासा करते हुए वे पुनः कहते हैं पादुन्भवदि य अण्णो पज्जायो पज्जाबो वयदि अण्णो । दक्वस्स तं पि दव्वं व पणटुं , उप्पण्यं ॥११॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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