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________________ केवलकानस्वभावमीमांसा वैसे ही कालको अपेक्षा मन्तरित पदार्थ मो केवलज्ञानमें प्रत्यक्ष प्रतिभासित होते हैं इसमें भी कोई बाधा नहीं आती । यदि मान क्षेत्रको अपेक्षा अन्त- : रितपदायोंको जान सकता है तो वह कालकी अपेक्षा अन्तरित पदार्थोंको क्यों नहीं जान सकता, अर्थात अवश्य जान सकता है। 'छपस्योंके परोक्ष बानसे भी इसकी पुष्टि होती है। यदि ऐसा न माना जाय तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानज्ञानको सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अतीत पर्यायोंका संधारण करनेपर ही ये सब ज्ञान उत्पन्न होते हैं। यदि वर्तमान समयमें अतीत पर्याय लक्ष्यमें न आवे तो इन ज्ञानोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकेगी, अर्थात् नहीं हो सकेगी। इससे सिद्ध है कि जब हम छपस्थोंका ज्ञान अतीत और अनागत पर्यायोंके जानने में , समर्थ है तब केवलज्ञानको ऐसी सामर्थ्यवाला मानने में आपत्ति ही क्या हो सकती है। वस्तुस्थिति यह है कि केवलज्ञानकी प्रत्येक समयमें जो पर्याय होती है वह अखण्ड ज्ञेयरूप प्रतिभासको लिए हए ही होती है और ज्ञानका स्वभाव जानना होनेके कारण केवलज्ञान अपनी उस पर्यायको समयभादसे जानता है, इसलिए केवलज्ञानी अपने इस शान परिणाम द्वारा छह द्रव्य और उनकी सब पर्यायोंका ज्ञाता होनेसे सर्वज्ञ संशाको धारण करता है। दर्पण और ज्ञानमें यह अन्तर है कि दर्पणमें अन्य पदार्थ प्रतिबिम्बित तो होते हैं, परन्तु वह उनको जानता नहीं। किन्तु केवलज्ञानमें अन्य अनन्त जड़-चेतन सभी पदार्थ अपने-अपने शक्तिरूप और व्यकरूप सभी आकारोंके साथ प्रतिभासित भी होते हैं, और वह उनको जानता भी है, इसलिये केवलज्ञानने आकाशकी अनन्तताको जान लिया, या तीनों कालोंकी अनन्तताको जान लिया, अतः उनको अनन्त मानना ठीक नहीं, यह प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो पदार्थ जिसरूपमें हैं उसीरूपमें वे केवलज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं ऐसा नियम है। इसी तथ्यको शंका-समाधानपूर्वक स्पष्ट करते हुए आचार्य अकलंकदेव तत्त्वार्थवातिक अ०५ सू०९ में लिखते हैं अनन्तत्वावपरिज्ञानमिति चेत् ? न, अतिशयशानदृष्टत्वान् । स्यादेतत् • 'सर्वशेनानन्तं परिचिम्म बा अपरिच्छिन्नं वा । यदि परिन्निं उपलब्मावसानत्वात् अनन्तस्वमस्य हीपते । अचापरिच्छिन्नम्, तत्स्वरूपानवयोषात सर्वशत्वं स्थात् ? सन्न, कि कारणम् ? अतिशयशामदृष्टत्वात् । भत्तस्केलिना जान
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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