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________________ जैनतत्त्वमीमांसा किन्तु वे इस प्रकारके कुतर्क करते हुए यह भूल जाते हैं कि जैनधर्ममें तत्वप्ररूपणाका मूल आधार ही केवलज्ञान है। उस केवलज्ञानके द्वारा जानकर ही केवली जिनने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा यह प्ररूपणा की कि जीब अनन्तानन्त हैं, वे संसारी और मुक्तके भेदसे दो प्रकारके हैं। पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एकएक हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं आदि । उन्होंने यह भी बतलाया कि इनमेसे प्रत्येक द्रव्यके गुण और पर्यायें भी अनन्त हैं। यह वस्तुस्थिति होते हुए भी उन महाशयों द्वारा वही केवलज्ञान वर्तमान समयमें कुतर्कका विषय बनाया जा रहा है । इसे समयकी विडम्बना ही कहनी चाहिए कि जो केवलज्ञानकी सत्ता ही स्वीकार नहीं करते उनके द्वारा तो यह कहा नहीं जा रहा है, किन्तु जो इन्द्रियातीत निरावरण केवलज्ञानकी सत्ता स्वीकार करते हैं उनकी ओरसे ऐसे कुतर्क किये जा रहे हैं यह आश्चर्य की बात है। हम यह तो मानते हैं कि केवलज्ञानके सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाला होनेपर भी क्रमनियमित पर्यायोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञानके आधारसे ही न करके कार्य-कारण परम्पराको ध्यानमें रखकर भी की जानी चाहिये, जैसा कि हम क्रमनियमित पर्यायमीमांसा अध्यायमें कर आये हैं। परन्तु केवल पर्यायोंकी क्रमनियमितता न सिद्ध हो जाय, मात्र इस डरसे केवलज्ञानकी सामर्थ्य पर ही कुतर्क करना उचित नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पहले लिख आये है कि केवलज्ञान एक निरावरण स्वच्छ और सांगोपाग दर्पणके समान है। जिस प्रकार उक्त प्रकारके दर्पणके सामने जितने पदार्थ होते है वे सब उसमे अखण्डभावसे प्रतिबिम्बित होते है। ठीक यही स्वभाव केवलज्ञानका है, क्योंकि वह छह द्रव्य और उनकी सब पर्यायोंको प्रतिभासित करने में समर्थ है। अतीत और अनागत पर्याय पर्याय दृष्टिसे विनष्ट और अनुत्पन्न कही जा सकती है, द्रव्यरूपसे नहीं। इसलिए जब कि केवलज्ञान प्रत्येक द्रव्यको पूरी तरहसे जानता है तो उसने तीनो कालसम्बन्धी सब पर्यायोंके साथ ही प्रत्येक द्रव्यको जाना यह सुतरॉ सिद्ध हो जाता है। जाननेकी अपेक्षा अतीत-अनागत पर्यायें वर्तमानमें जानी गई इसलिए वे वर्तमानके समान ही हैं। जैसे क्षेत्रको अपेक्षा मेरु आदि अन्तरित पदार्थ केवलज्ञानमें प्रतिभा. सित होते हैं, क्षेत्रका व्यवधान होनेपर भी इसमें कोई बाधा नहीं आती।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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