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________________ ४०४ जैनतस्वमीमांसा माविक अतिशयवत् अनन्तामन्तपरिमाणं तेन तदनन्तमबुध्यते साक्षात् । सदुपदे शादितररनुमानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः । न च तेन परिच्छिन्नमित्यर्थः सान्तम्, अनन्तनानन्तमिति ज्ञातत्वात् । आकाशके प्रदेश अनन्त हैं, इसलिये उनका ज्ञान नहीं हो सकता, ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि सातिशयज्ञानके द्वारा उसकी बनन्तताज्ञात है। शंका-सर्वज्ञने अनन्तको जाना या नहीं जाना। यदि जान लिया तो अनन्तका अवसान (छोर) उपलब्ध हो जानेसे अनन्तकी अनन्तताकी हानि होतो है और यदि नहीं जाना तो अनन्तके स्वरूपका ज्ञान नहीं होनेसे सर्वज्ञताकी हानि होती है। समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अतिशयज्ञानके द्वारा सर्वज्ञ अनन्तको जानते हैं। जो यह केवलियोंका ज्ञान है वह क्षायिक, अतिशयसहित और अनन्तानन्त परिमाणवाला है, इसलिये वह (ज्ञान) अनन्तको साक्षात् जानता है। तथा सर्वज्ञके उपदेशसे दूसरे मनुष्य अनुमानसे जानते हैं. इसलिये सर्वज्ञत्वकी हानि नही होती । तथा सर्वज्ञने अनन्तको जान लिया इसलिये अर्थ सान्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान स्वयं अनन्तरूप है, इसलिये उसके द्वारा अर्थ अनन्त है यह ज्ञात हो जाता है । __यहाँ जो कुछ कहा गया है उसका सार यह है कि किसी वस्तुका अन्त उसकी उत्तरोत्तर हानि होनेसे ही होता है, जाननेसे उसका अन्त नहीं होता। ज्ञानका तो काम है कि जो जिसरूपमें है उसे उसीरूपमें जाने। एकको एकरूपमें जाने, संख्यातको संख्यातरूपमें जाने, असंख्यातको असंख्यातरूपमे जाने और अनन्तको अनन्तरूपमें जाने। जो जिसरूपमें अवस्थित है उसको उसीरूपमें जान लिया इसलिये अर्थ हो गया ऐसा नहीं है । द्रव्यप्रमाणानुगम । संख्याप्ररूपणा ) में प्रत्येक गणस्थान और मार्गणास्थानमें जोवोंको संख्याका निर्देश करते हुए श्री षटखण्डागममे जिस गुणस्थान या मार्गणास्थानमें जीवोंको संख्या अनन्त है उसका कालकी अपेक्षा निर्देश करते हुए बतलाया है कि अनन्त कालके द्वारा भी यदि इस गुणस्थान या मार्गणास्थानवर्ती जीवोंकी संख्याको उत्तरोत्तर कम करते जायें तो भी उसका अन्त प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिये इस गुणस्थान या मार्गणास्थानवी जीवोंकी संख्या अनन्त है। श्री धवलाजी प्रथम पुस्तकके अन्तमे शंका-समाधान करते हुए
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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