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________________ ૮૦ जनतत्त्वमीमांसा विषयको स्वीकृति देकर भी भूतार्थरूपसे वे जाने गये सम्यग्दर्शन है सो प्रकृत में भूतार्थरूपसे उनका जानना यही है कि जीवपदार्थ नौ सस्वमत होकर भी अपने एकत्वसे व्याप्त रहता है यह कहकर मोक्षमार्ग में एकमात्र निश्चयनयका विषय हो उपादेय है यह दिखलाया गया है। इसके बाद गाथा १४में भूतार्थरूपसे नौ पदार्थों के देखने पर एकमात्र अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माका ही अनुभव होता है, अतएव इस प्रकार आत्माको देखनेवाला जो नय है उसे शुद्धनय कहते हैं यह कहकर व्यवहारनयके विषयको गौण और निश्चयनयके विषयको मुख्य करके पुन. अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है । ५ १५वीं गाथामें उक्त विशेषणोंसे उक्त आत्माको जो अनुभवता है उसने पूरे जिनशासनको अनुभवा यह कहकर पूर्वोक्त प्रतिपादित निश्चय मोक्षमार्गकी महिमा गाई गई है । व्यवहारनय है और उसका विषय भी है, परन्तु उससे मुक्त होनेके लिए व्यवहारनयके विषय परसे अपना लक्ष्य हटाकर निश्चयनयके विषय पर अपना लक्ष्य स्थिर करो । ऐसा करने से ही व्यवहाररूप बन्धपर्याय छूट कर निश्चय रत्नत्रयस्वरूप मुक्तिकी प्राप्ति होगी । जिस महान् आत्माने व्यवहाररूप बन्धपर्यायको गौण करके निश्चय रत्नत्रयकी आराधना द्वारा साक्षात् निश्चय रत्न को प्राप्त किया है उसीने तत्त्वतः पूरे जिनशासनको अनुभवा है । सोचिये तो कि इसके सिवा जिनशासनका अनुभवना और क्या होता है । trade fafवध शास्त्रोंको पढ़ लिया, किसी विषयके प्रगाढ़ विद्वान् हो गये यह जिनशासनका अनुभवना नहीं है। जिनशासन तो रत्नत्रयस्वरूप है और उसकी प्राप्ति व्यवहारको गौण किये बिना तथा निश्चय पर आरूढ़ हुए बिना हो नहीं सकती, अतः जिसे पूरे जिनशासनको अपने जीवनमे अनुभवना है उसे हेय या बन्धमार्ग जानकर व्यवहारको गोण और मोक्षमार्गमें उपादेय जानकर निश्चयको मुख्य करना ही होगा तभी उसे निश्चय रत्नत्रयस्वरूप जिनशासनके अपने जीवनमें दर्शन होंगे । यह इस गाथाका भाव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा द्वारा भी गौण - मुख्यभावसे उसी अनेकान्तका उद्घोष किया गया है। ६ 'दंसण-गाण-चरिताणि' यह सोलहवीं गाथा है। इसमें सर्वप्रथम साधु अर्थात् ज्ञानीको निरन्तर दर्शन, ज्ञान और चारित्रके सेवन करनेका उपदेश देकर व्यवहारका सूचन किया है। परन्तु विचार कर देखा जाय तो ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्माको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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