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________________ . अनेकाल स्यावानीमांसा. ३८५. है, इसलिए इस बार भी तत्स्वरूप असा आत्मा सेवन करने योग्य है यह सूचित किया गया है। तात्पर्य यह है कि निश्चवका शान कराने लिए व्यवहार द्वारा ऐसा उपदेश दिया जाता है इसमें सन्देह नहीं, पर ' उसमें मुख्यता सिश्चयकी ही रहती है। इसके विपरीत यदि कोई उस व्यवहारकी ही मुख्यता मान ले तो उसे सत्स्वरूप बम और अविचल मात्माको प्रतीति त्रिकालमें नहीं हो सकती । इस गाथाका मही भाव है। ___ इस विषयको स्पष्टरूपसे समझनेके लिए गाथाके उत्तराध पर ध्यान देनेकी आवश्यकता है, क्योंकि गाथाके पूर्वाध में जो कुछ कहा गया है उसका उत्तराध में निषेध कर दिया है। सो क्यों? इसलिए नहीं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि पर्यायदृष्टिसे भी अभूतार्थ हैं, बल्कि इसलिए कि व्यवहारनयसे देखने पर ही उनकी सत्ता है । निश्चयनयसे देखा जाय तो एक ज्ञायकस्वरूप आत्मा ही अनुभवमें आता है, मान, दर्शन चारित्र नहीं। इसलिए इस कथन द्वारा भी एक अखण्ड और अविचल आत्मा ही उपासना करने योग्य है यही सूचित किया है। इस प्रकार विचार करके देखा जाय तो इस गाथा द्वारा भी व्यवहारको गौण करके और निश्चयको मुख्य करके अनेकान्त ही सूचित किया गया है। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने व्यवहारसे क्या कहा जाता है और निश्चयसे क्या है इसकी सन्धि मिलाते हुए सर्वत्र अनेकान्नकी ही प्रतिष्ठा की है। इतना अवश्य है कि बहुत-सा व्यवहार तो ऐसा होता है जो अखण्ड वस्तुमें भेदमूलक होता है। जैसे आत्माका शान, दर्शन और चारित्र आदिरूपसे भेद-व्यवहार या बन्धपर्यायकी दृष्टिसे आत्मामें नारकी, निर्यञ्च, मनुष्य, देव, मतिज्ञानी, श्रुतमानी, स्त्री, पुरुष और नपुंसक आदिरूपसे पर्यायरूप भेदव्यवहार । ऐसे मेदद्वारा एक अखण्ड आत्माका जो भी कथन किया जाता है, पर्यायकी मुख्यतासे आत्मा वैसा है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि आत्मा जब जिस पर्यायरूपसे परिणत होता है उस समय वह तद्रूप होता है, अन्यथा आत्माके संसारी और मुक्त ये भेद नहीं बन सकते, इसलिये जब भी आत्माके ज्ञायक स्वभावमें उक्त व्यवहारका 'नास्तित्व' कहा जाता है तब भेदमूलक व्यवहार गोण है और त्रिकाली ध्रुवस्वभावको मुख्यता है यह दिखलाना ही उसका प्रयो- . जन रहता है। परन्तु बहुत-सा व्यवहार ऐसा भी होता है जो आत्मामें बाह्य निमित्तादिको दृष्टिसें या प्रयोजन विशेषसे आरोपित किया जाता है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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