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________________ बनेकान्त-स्वावादमीमांसा , ३६३ (५) गुणीसे सम्बन्ध रखनेवाला जो देश अस्तित्वका है वही देश अन्य समस्त धर्मो का है, इसलिये गुणिदेशको अपेक्षा समस्त धर्मों की एक वस्तुमें अमेदवृत्ति बन जाती है। ( ) जो उपकार अस्तित्वके द्वारा . किया जाता है वही अनन्त धर्मों के द्वारा किया जाता है, इसलिये उपकारकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोकी अभेदति बन जाती है। (७) एक वस्तुरूपसे अस्तित्वका जो संसर्ग है वही अनन्त धोका है, इसलिये संसर्गको अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धोकी बमेदवृत्ति बन जाती है । (८) जिस प्रकार अस्ति' यह शब्द अस्तित्व धर्मरूप वस्तुका वाचक है उसी प्रकार वह अशेष धर्मात्मक बस्तुका भी वाचक है, इसलिये शब्दको अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धोकी अमेदवृत्ति बन जाती है। यह सब व्यवस्था पर्यायार्थिक नयको गौणकर द्रव्याधिक नयकी' मुख्यतासे बनती है। परन्तु पर्यायार्थिक नयको प्रधानता रहने पर अभेदवृत्ति सम्भव नहीं है। खुलासा इस प्रकार है-बात यह है कि पर्यायाथिक नयकी प्रधानता रहनेपर अभेद वृत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि (१) इस नयकी विवक्षासे एक वस्तु में एक समय अनेक धर्म सम्भव नही है। यदि एक कालमें अनेक धर्म स्वीकार भी किये जायं तो उन धर्मोकी आधारभूत वस्तमें भी भेद स्वीकार करना पड़ता है। (२) एक धर्मके साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो वस्तुरूप है वह अन्यका नहीं हो सकता और जो अन्यसे सम्बन्ध रखनेवाला वस्तुरूप है वह उसका नहीं हो सकता। यदि ऐसा न माना जाय तो उन धोंमें भेद नहीं हो सकता। (३) एक धर्मका आश्रयभूत अर्थ भिन्न है और दूसरे धर्मका आश्रयभूत अर्थ भिन्न है। यदि धर्मभेदसे आश्रयभेद न माना जाय तो एक आश्रय होनेसे धर्मों में भेद नहीं रहेगा। (४) सम्बन्धीके मेदसे सम्बन्धमें भी भेद देखा जाता है, क्योंकि नाना सम्बन्धियोंकी अपेक्षा एक वस्तुमें एक सम्बन्ध नहीं बन सकता है । (५) अनेक उपकारियोंके द्वारा जो उपकार किये जाते हैं वे अलग-अलग होते हैं उन्हें एक नहीं माना जा सकता है (६) प्रत्येक धर्मका गुणिदेश भिन्न-भिन्न होता है वह एक नहीं हो सकता। यदि अनन्त धोका एक गुणिदेश मान लिया जाय तो वे धर्म अनन्त न होकर एक हो जायेंगे। अथवा भिन्न-भिन्न वस्तुओंके षौका भी एक गुणिदेश हो जायगा । (७) अनेक संसगोकी अपेक्षा संसर्गमें भी भेद है, वह एक नहीं हो सकता। (८) खया प्रतिपाद्य विषयके भेदसे प्रत्येक शब्द जुदाअदा है। यदि सभी धोको एक सब्दका वाच्य माना जायगा तो
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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