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________________ ३६२ जैनतत्त्वमीमांसा तात्पर्य है। सप्तभंगीमें सात भंगोंके प्रत्येक पदकी सार्थकताका निर्देश हम पहले ही कर आये हैं। एक बात यहां विशेष जाननी चाहिये कि कहीं किसी वक्ताने स्यात् पदका प्रयोग नहीं भी किया हो तो वहाँ वह है ही ऐसा समझ लेना चाहिए. क्योंकि ऐसा वचन भी है कि 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका आशय रखनेवाला वक्ता कदाचित् 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं भी करता है तो भी वह प्रकरण आदिको ध्यानमें रख कर समझ लिया जाता है। कहा भी है तथा प्रतिज्ञाशयतोप्रयोगः। जिसके अभिप्रायमें उस प्रकारकी प्रतिज्ञा है, वह 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं करता तो भी कोई दोष नहीं है। ९. कालादि आठको अपेक्षा विशेष खुलासा __पहले हम यह बतला आये हैं कि प्रथम भङ्गमें यत द्रव्यार्थिकनयकी मुख्यता रहती है, इसलिये उसके द्वारा कालादिकी अपेक्षा अभेद वृत्ति करके पूरी वस्तु स्वीकार कर ली जाती है और दूसरे भङ्गमें यत' पर्यायाथिकनयकी प्रधानता रहती है, इसलिये वहाँ कालादि की अपेक्षा अभेदोपचार करके उसके द्वारा समग्र वस्तु स्वीकार कर ली जाती है। अतः प्रकृतमें उन कालादि आठका निर्देश करके उन द्वारा प्रकृत विषय पर विशेष प्रकाश डालते हैं। वे कालादि आठ ये हैं-काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इन आठकी अपेक्षा खुलासा इस प्रकार है (१) 'कथचित् है ही जीव' यहाँ अस्तित्वविषयक जो काल है वही काल अन्य अशेष धर्मोंका है इसलिये समस्त धर्मों की एक वस्तुमें कालकी अपेक्षा अभेदवृत्ति बन जाती है। (२) जैसे अस्तित्व वस्तुका आत्मस्वरूप है वैसे अन्य अनन्त धर्म वस्तुके आत्मस्वरूप है, इसलिये समस्त धर्मोकी एक वस्तुमें आत्मस्वरूपकी अपेक्षा अभेदबृत्ति बन जाती है। (३) जो द्रव्य अस्तित्वका आधार है वही अन्य अनन्त धर्मों का आधार है, इसलिये अनन्त धर्मो का आधार होनेसे अर्थकी अपेक्षा समस्त धर्मों की एक वस्तुमें अभेदवृत्ति बन जाती है। (४) वस्तुके साथ अस्तित्वका जो तादात्म्य लशण सम्बन्ध है वही अन्य समस्त धर्मो का भी है, इसलिये सम्बन्धकी अपेक्षा समस्त धर्मो की एक वस्तुमें अभेदवृत्ति पाई जाती है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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