SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनतत्वमीमांसा वाचकके अमेदसे उन वाच्यभूत धर्मों में भी भेद नहीं रहेगा। इस प्रकार पर्यायदृष्टिमे विचार करने पर कालादिको अपेक्षा अर्थभेद स्वीकार किया जाता है। फिर भी उनमें अभेदका उपचार कर लिया जाता है। अतः इस विधिसे जिस बचन प्रयोगमे अभेदवृत्ति और अभेदोपचारको विविक्षा रहती है वह वचन प्रयोग सकलादेश है यह निश्चित होता है। यद्यपि प्रमाण सप्तभंगीका प्रत्येक भंग सुनयवाक्य है, फिर भी वह प्रमाणाधीन है, क्योंकि उसके द्वारा अशेष वस्तु कही जाती है। यह प्रमाण सप्तभंगीके दो भंगोंकी मीमांसा है। शेष पाँच भागोंकी मीमांसा भी इसी विधिसे कर लेनी चाहिये। इन भंगोंको विशेष रूपसे समझनेके लिये तत्त्वार्थवार्तिक अ० ४ के अन्तिम सूत्रवृत्तिपर दृष्टिपात करना चाहिये। १०. पूर्वोक्त विषयका सुबोध शैलीमें खुलासा यहाँ तक हमने शास्त्रीय दृष्टिसे अनेकान्तके स्वरूपका विचार किया। आगे उसपर सुबोध शैलीमें विशेष प्रकाश डाला जाता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि जो वस्तु तत्स्वरूप हो वही अतत्स्वरूप कैसे हो सकती है, क्योकि एक हो वस्तुको तत्-अतत् स्वरूप माननेपर विरोध दिखाई देता है। परन्तु विचारकर देखा जाय तो इसमें विरोधकी कोई बात नहीं है । खुलासा इस प्रकार है यहॉपर वस्तुको जिस अपेक्षासे तत्स्वरूप स्वीकार किया है उसो अपेक्षासे उसे अतत्स्वरूप नहीं स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ एक ही व्यक्ति अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र है और अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है, इसलिए जिस प्रकार एक ही व्यक्तिमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे पितृत्व और पुत्रत्व आदि विविध धर्मोका सद्भाव बन जाता है उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ द्रव्यार्थिक दृष्टिसे तत्स्वरूप है, क्योंकि अनन्तकाल पहले वह जितना और जैसा था उतना और वैसा ही वर्तमानकालमें भी दृष्टिगोचर होता है और वर्तमानकालमें वह जितना और जैसा है उतना और वैसा ही वह अनन्तकाल तक बना रहेगा। उसमेंसे कोई एक प्रदेश या गुण खिसक जाता हो और उसका स्थान कोई अन्य प्रदेश या गुण ले लेता हो ऐसा नहीं है, इसलिए तो वह सदाकाल तत्स्वरूप ही है। किन्तु इस प्रकार उसके तत्स्वरूप सिद्ध होनेपर भी पर्यायरूपसे भी वह नहीं बदलता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि जो बालक
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy