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________________ निश्वय-व्यवहारमीमांसा बुद्धि स्वीकारता है और जो स्वाधित होनेका साक्षात् उपाय है उसमें उपदिय बुद्धि करके उसरूप होनेके प्रयत्नमें जागरूक रहता है। यहां पर हमने 'साक्षात्' शब्दका प्रयोग किया है सो इससे यह नहीं समझना चाहिये कि जो सर्वथा हेय है वह परम्परासे स्वात्रित होनेका उपाय है । किन्तु जो स्वाधित होनेका उपाय है वह एक ही है, उसके साथ दूसरा अन्य किसी भी प्रकारका उपाय नहीं यह दिखलानेके लिये प्रकृत में उपाय पदके पूर्व साक्षात् पदका प्रयोग किया है।। तत्त्वार्थसूत्रमें 'सम्यग्दर्शन-शान-चारित्राणि मोक्षमाणः' यह सूत्र आया है । इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिक १० ६४ में लिखा है निश्चयनयात्तृभयावधारणमपीष्टमेव, अनन्तरसमयनिर्वाणजननसमर्थानामेव सद्दर्शनादीना मोक्षमार्गत्वोपपत्तेः परेषामनुकूलमार्गताम्यवस्थानात् । एतेन मोक्षस्यैव मार्गो मोक्षस्य मार्ग एवेत्युभयावधारसमपोष्टमेव प्रत्यायनीयम् । निश्चयनयको अपेक्षा तो दोनों ओरसे अवधारण करना इष्ट ही है, अभ्यभिहित अनन्तर उत्तर समयमें निर्वाणके उत्पन्न करनेमें समर्थ सम्यग्दर्शनादिमें मोक्षमार्गपना बनता है तथा इनसे भिन्न जो पूर्व समीपवर्ती सम्यग्दर्शनादिक है उनमें अनुकूल मोक्षमार्गपनेकी व्यवस्था हो जाती है। इससे सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शनादिक मोक्षका ही मार्ग है या सम्यग्दर्शनादिक मोक्षका मार्ग ही है इस प्रकार दोनों ओरसे एव पद द्वारा अवधारण करना इष्ट हो है ऐसा निश्चय करना चाहिये। इसी तथ्यका निर्देश करते हुए प्रवचनसार माथा ८२ की तत्त्वदीपिका टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रने जो कुछ कहा है-उसका भाव यह है कि अतीत कालमें जितने तीर्थकर हुए उन्होंने कर्मनाशका अन्य कोई उपाय नहीं होनेसे एकमात्र इसी निश्चय नयस्वरूप मोक्षमार्गके द्वारा कर्मनाश कर परमात्मदशा प्रास की और अन्य जीवोंको भी उसी मार्गका उपदेश दिया । इसलिये मोक्ष प्राप्त करनेका अन्य कोई मार्ग नहीं है यह निश्चित होता है। इतने वक्तव्यसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे हम व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं वह वास्तवमें मोक्षमार्ग नहीं है। मात्र सहचर सम्बन्ध वश उसमें निमित्तताका व्यवहार करके उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है, वस्तुतः वह मोक्षमार्ग नहीं है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पण्डित प्रवर टोडरमल बी मोक्षमार्ग प्रकाशक अन्यमें लिखते हैं अन्तरंगमें तो आपने निर्धार करके यथावत् निश्चय-व्यवहार मोलमार्मको
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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