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________________ ३१४ जनतस्त्वमीमांसा जाकर किसी प्रकारके निमित्त और प्रयोजनके होनेपर ही किया जाता है यह भी इससे ज्ञात होता है। इसीलिये आगममें उपचारकी प्रवृत्ति किस स्थितिमें होती है इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है मुख्याभावे सति निमित्त प्रयोजने च उपचार प्रवर्तते । मुख्यका अभाव होनेपर अर्थात् मुख्यकी विवक्षा न होनेपर तथा किसी भी निमित्त और प्रयोजनके होनेपर उपचार ( इसने इसको किया या इससे यह हुआ इत्यादि विकल्प ) प्रवृत्त होता है। ___ इसीलिए आगममें असद्भुत व्यवहारका यह लक्षण दृष्टिगोचर होता है अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्धृत व्यवहारः। स किल उपचारः । कोई धर्म अन्य वस्तुमें प्रसिद्ध हो, उसे अन्य वस्तुमें आगेपित करना यह असद्भूत व्यवहार है और इसीका नाम उपचार है । अब विचार कीजिये कि एक वस्तुके धर्मको अन्य वस्तुमें कैसे आरोपित किया जायगा। वह या तो विकल्प द्वारा सम्भव है या विकल्पपूर्वक वचन द्वारा सम्भव है। इससे सिद्ध हुआ कि वह विकल्प या उक्त प्रकारका वचन ही तो उपचाररूप होगा। यह उस विकल्प या वचनको विशेषता है जिससे हम उसे उपचाररूप स्वीकार करते है। जैसे जब हम किसीके कारण-धर्मका अविनाभाव सम्बन्धवश अन्य वस्तुमे आरोप करते है तो वह कारणकी अपेक्षा विकल्पके द्वारा आरोपित कारण कहलाता है और विकल्प द्वारा जिसका वह आरोपित कारण स्वीकार किया जाता है उसका वह आरोपित कार्य कहलाता है। इसीलिये व्यवहारहेतुको आगममें अपरमार्थभूत स्वीकार किया गया है। यहाँ वन्ध्यापुत्रका उदाहरण लागू इलिये नहीं होता है, कारण कि वन्ध्या तो है पर उसका पुत्र नहीं है । जब कि आरोपित कार्यकारणभावमें दो पदार्थ स्वतन्त्र है । किन्तु जिस मुख्य कारणका वह कार्य है उसे गौणकर दिया गया है और जिसका वह कार्य नहीं है उसका उसे कार्य कहा गया है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार या उपचारका अर्थ ही विवक्षित विकल्प है और इस आधार पर जो कार्यकारण कहा जाता है वह व्यावहारिक, उपचरित और कल्पित कार्यकारण कहलाता है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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