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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अपेक्षापूर्वक कथन करना यह व्यवहार है। इसलिये ऐसे कपनमें या अपेक्षा पूर्वक जानने में मात्र व्यवहारको स्वीकार किया गया है। वस्तु तो स्वरूपसे स्वयं और निरपेक्ष ही' होती है। इस प्रकार प्रकृतमें विधिरूपसे निश्चय नयके विषयको स्वीकार करने पर वह शायक आत्मा हो प्रतीतिमें आता है और निषेध रूपसे उसके विषयका विचार करने पर वह पराश्रित विकल्परूप व्यवहारके निषेधरूपसे प्रतीतिमें आता है यह सिद्ध हुआ। विचार कर देखा जाय तो ध्येयकी अपेक्षा स्वाश्रित विकल्प भी अनुभवको दशामें निबिड हो जाता है। इसको और अधिक स्पष्ट करके देखा जाय तो पराश्रित विकल्पका तो बद्धिपूर्वक निषेध किया जाता है। निषेध किया जाता है इसका यह अर्थ है कि मैं ये नही हूँ ऐसा बुद्धिपूर्वक स्वीकार किया जाता है। परन्तु जैसे जैसे आत्मा अनुभवके सन्मुख हाकर स्वयं अनुभूतिरूपसे परिणत होता है वैसे वैसे उसका विवक्षित ध्येयाश्रित विकल्प स्वयं मन्दमन्द होता हुआ अनुभूति की दशामें स्वयं छूट जाता है। १३. उपचार पदका अर्थ आत्मख्याति टीकामें उपचार पदका अर्थ करते हुए लिखा है यत्तु व्याप्य-व्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्य निर्वस्य च पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म गृह्णाति परिणमथत्युत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्प स किलोपचारः । और जो व्याप्य-व्यापक भावका अभाव होने पर भी प्राय्य, विकार्य और निवर्त्य पुद्गलद्रव्यरूप कर्मको आत्मा ग्रहण करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता है, करता है, बांधता है इस प्रकार जो विकल्प होता है वह उपचारस्वरूप है। इसे गाथामें व्यवहारका बक्तव्य बतलाया और आत्मख्याति टीकामें उक्त प्रकारके विकल्पको उपचार कहा है । तथा आगेको गाथाको आत्मख्याति टोकामें भी जीव दूसरे व्यके दोष-गुणका उत्पादक है ऐसा जो भी व्यवहार होता है उसे विकल्प कहकर उपचार कहा गया है। इससे मालूम पड़ता है कि उक प्रकारके विकल्पका नाम ही व्यवहार या उपचार है। इतना अवश्य है कि यह उपचार निराधार न किया
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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