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________________ ૨૮૪ arrantriter होते हैं उतने ही परसमय ( मिथ्या मत ) होते हैं ( ८९४ ) मिथ्या मतोंके वचन सर्वथा वचनसे युक्त होनेके कारण मिथ्या होते हैं । किन्तु अनेकान्ती जैनोंके वचन कथंचित् वचनसे युक्त होनेके कारण सम्यक् होते हैं ।। ८९५ ।। यह जिनागमका निचोड़ है । इससे हम जानते हैं कि जो ३६३ एकान्त मत कहे गये हैं । सापेक्षारूपसे वे सभी मत जैनोंको मान्य है । जैनागममें यदि इन मतोंका निषेध है तो केवल एकान्तसे ही उनका निषेध हैं । इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा में कहते हैं मिथ्यासभूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ १०० ।। मिथ्या समूह यदि मिथ्या है तो हम स्याद्वादियों के यहाँ मिथ्या एकान्त नहीं है, क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और सापेक्ष नय वस्तु होते हैं और वे ही कार्यकारी माने गये हैं ।। १०८ ।। यह कारिका अर्थगर्भ है । इसमे सम्यक् नय, मिथ्या नय, सम्यक प्रमाण और मिथ्या प्रमाण इन चारोंके स्वरूप पर स्पष्टतः प्रकाश डाला गया है । तत्त्वार्थवार्तिकमें इन चारोंमें क्या अन्तर है इसे स्पष्ट किया गया है । उसके प्रकाशमें इस कारिकाको देखना-समझना चाहिये । वहाँ कहा है एकान्त दो प्रकारका है—सम्यक एकान्त और मिथ्या एकान्त । प्रमाण भी दो प्रकारका है—सम्यक अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । हेतु विशेष की सामर्थ्यकी अपेक्षा करके प्रमाणके द्वारा कहे गये अर्थके एक देशका निर्देश करनेवाला सम्यक एकान्त है । एकान्तके निश्चयपूर्वक अन्य अशेष ( धर्मों ) के निराकरणमे उद्यत मिथ्या एकान्त है। एक वस्तु में युक्ति और आगमसे अविरुद्ध अस्ति, नास्ति आदि सप्रतिपक्ष धर्मोका निरूपण करनेवाला सम्यक अनेकान्त है और तन्-अतनुस्वभावरूप वस्तुसे शून्य परिकल्पित अनेकरूप कहनेवाला केवल वचन या जाननेवाला मात्र ज्ञान मिथ्या अनेकान्त है । उसमेंसे सम्यक एकान्तका नाम नम है और सम्यक अनेकान्सका नाम प्रमाण है । यह उक्त चारोंका स्वरूप निर्देश है। इससे हम जानते है कि कार्य -
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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